स्लेट पर अनुभूतियों के उगे आखर सब
डॉ रामकृष्ण मिश्र
स्लेट पर अनुभूतियों के उगे आखर सब
मांँ सरीखे जब कभी संतोष देते हैं ं।
बहुत अनगढ़ काल के संदर्भ जब खुलते
पास बैठी कामना के स्पर्श से मिलते
सरसता के पत्र पर जो चित्र उगते हैं
स्नेह से संभाव्य का संदेश देते हैं।।
साँझ हो कि समय- शिला के भोर का जगना
धूप हो कि अपेक्ष्य व्योमी मेघ का छाना
वंचना के स्वर मधुर होते रहे है तब
है कहीं पर छिपा जो सँदेश देते हैं।।
बहुत ऊँचे वृक्ष से क्या है हमें लेना
हो सका तो हमें ही आराध्य - सा देना।
एक वंशी नाद पर रज- कण थिरकते हैं
स्लेट पर अनुभूतियों के उगे आखर सब
मांँ सरीखे जब कभी संतोष देते हैं ं।
बहुत अनगढ़ काल के संदर्भ जब खुलते
पास बैठी कामना के स्पर्श से मिलते
सरसता के पत्र पर जो चित्र उगते हैं
स्नेह से संभाव्य का संदेश देते हैं।।
साँझ हो कि समय- शिला के भोर का जगना
धूप हो कि अपेक्ष्य व्योमी मेघ का छाना
वंचना के स्वर मधुर होते रहे है तब
है कहीं पर छिपा जो सँदेश देते हैं।।
बहुत ऊँचे वृक्ष से क्या है हमें लेना
हो सका तो हमें ही आराध्य - सा देना।
एक वंशी नाद पर रज- कण थिरकते हैं
वही अथ से अंत तक आदेश देते हैं
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