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खदेरन!

खदेरन!

अवध किशोर मिश्र
किसी की मृत्यु पर तुम्हारे वैरागी व्यक्ति व्यथित हुए.. संवेदना से भर गए..
तुम्हारे हिसाब से या तर्क के हिसाब से वैरागी जिसके मन में राग रह ही नहीं गया है.. को व्यथित नहीं होना चाहिए.. हाँ नहीं होना चाहिए.. पर संवेदना शून्य होना चाहिए या नहीं.. यहाँ संवेदना और व्यथित होना दो अलग अलग वस्तु है.. वैरागी व्यथित नहीं होगा लेकिन संवेदना शून्य भी नहीं होगा.. संवेदना शून्य केवल एक निर्मम दुष्ट हत्यारा होता है.. दूसरों को कष्ट पहुँचाते हुए.. पर वही बात उसके अपनों पर आ जाती है तो उसकी संवेदना आम व्यक्तियों से अधिक हो जाती है..
आधुनिक अत्याचारियों आतंकवादियों को भी दूसरों के मारने में संवेदनशून्यता रहती है पर अपने मारे जाएं तो विलाप... रावण जैसे उद्भट ज्ञानी शत्रुओं के मारे जाने पर अट्टहास करने वाला मेघनाद और कुंभकर्ण की मृत्यु पर फुट फुटकर विलाप करता पाया जाता है... "हा मेघनाद! हा कुंभकर्ण!.... " इत्यादि.
यही दूसरी ओर श्रीराम ईश्वर के अवतार होने पर भी मानव रूप में जीवन का आदर्श वैरागी भाव रखते हुए प्रायः सबके लिए संवेदना तो रखते हैं परंतु शत्रु रावण की मृत्यु पर अट्टहास नहीं करते.. यही फर्क है वैरागी मन और अवैरागी मन वाले व्यक्ति में.. और किसी की मृत्यु पर विलाप करने का एक नया कारण संबंध का संपर्कित होना है.. जो जिसके अधिक संपर्क में होगा.. वह उतना ही ज्यादा मोह ग्रस्त होगा.. वैरागी मन हुआ तो संवेदना से भर गया.. आंसू को रोक लिया.. विधाता की भूमिका मानकर मौन हो गया और अवैरागी मन हुआ तो हाहाकार करता हुआ विलाप करने लगा..
यहाँ यह देखना ज्यादा समीचीन होगा कि वैरागी मन किस डिग्री तक पक गया है.50% से जितना अधिक पका हुआ वैराग्य है उतना ही मोह, राग, दु;ख, विलाप कम होता जाएगा और 50% से जितना कम पका होगा मन उतना ही चीख- चिल्लाहट, रोना.. धोना, विलाप करना बढ़ता जाएगा..
और प्राण.. मृत्यु.. मोक्ष.. गति पर ज्यादा तर्क वितर्क क्या करना.. शरीर के भीतर अवस्थित जीव को एक निश्चित अकाट्य संख्या तक गिनती योग्य प्राण वायु को ग्रहण और निष्कासन होना ही है.. और अंतिम निष्कासन के बाद आमजन की बोल चाल की भाषा में मृत्यु की संज्ञा होगी ही.. बाद में सत्कर्म और दुष्कर्म के नाम पर चर्चा चलती ही रहेगी ही.. मोक्ष की बात में सत्कर्म और दुष्कर्म से कोई लेना देना नहीं.शरीर स्थित जीव को जबतक तटस्थ भाव.. द्वंद्वातीत होना नहीं आया तबतक मोक्ष की बात दिवास्वप्न सा है..
वैसे तुलसीदास बाबा तो चारों पुरूषार्थो से आगे बढ़ गए.. नहीं चाहिए मोक्ष.. नहीं चाहिए निर्वाण..
"अर्थ, धर्म, काम को तो छोड़ ही दो
" अर्थ न धर्म न काम रूचि
गति न चहौं निर्वाण
जन्म जन्म यह राम पद
औरु वरदान न आन. "
अब तुलसी बाबा को पकड़ूं तो पुनर्जन्म..! पुनर्जन्म..!!पुनर्जन्म...!!!
फिर काहे को मोक्ष या तीसरी.. चौथी गति...
छोड़ो सब तर्क.. वितर्क आ जाओ बस बाबा तुलसी के एक ही "राम नाम" जप में.. हृदय की भक्ति में..
...."मेरो तो एक गिरिधर गोपाल दूजो न कोई...
... "प्रेम गली अति सांकरि न दूजो कोई समाय..
.. पायो जी मैंने.. राम-रतन धन पायो.. (छि:! यह फिल्म वाला नहीं..) 
विशेष हरि कृपा
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