लिख रहा हूँ प्रीत के पन्ने|
डॉ रामकृष्ण मिश्र
लिख रहा हूँ प्रीत के पन्ने , तुम आओ।
सो नहीं पा रही खुद रजनी , तुम आओ।।
मौन हैं सारी दिशाएँ शान्त कोलाहल।
घोसले निष्पंद- से लगते, तुम आओ।।
विगत के अनुभूत चित्रों को सजाना है।
शून्यता का दंश दूभर है ,तुम आओ।।
अपेक्षित भी भावनाएँ रूठ कर बैठीं।
हौसले जीवन्त फिर होंगे, तुम आओ।।
मंद गंधिल हवा आएगी हमारे पास।
ये नयन कंँदील जगते रहें, तुम आओ।।
द्वार, घर, आँगन सभी की बंद हैं आँखें।
राह ही पहचान लेगी साँस, तुम आओ।।
***********रामकृष्ण
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