घूमती पृथ्वी घूमते ग्रह नक्षत्र प्रतिपल,
अचल रहा बस मेरे आँसुओं का पल।स्याह रजनी में ढूंढ रही थी स्मित प्रात को,
भाग्य में स्थित अश्रु के मधुकण अविरल।
रजत ओस ने किया धरा का श्रृंगार,
छू गयी मृदु गात को मेरे शीतल बयार।
भाव-शून्य ही रहा विरही यह मन मेरा,
अहो प्रकृति!क्या करूँ मैं तेरा निश्छल प्यार?
देख कुहिर ज्यों मेरा हो उच्छश्वास,
पग पग पर जैसे उस निष्ठुर का वास,
श्वास बना समिधा मैं तपती ही रही
न मधुर है शीत न मधुर है मधुमास।
डॉ. रीमा सिन्हा
(लखनऊ)
स्वरचित
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