प्राचीन भारत का भव्य गौरव नालंदा विश्वविद्यालय-अशोक “प्रवृद्ध’

प्राचीन भारत का भव्य गौरव नालंदा विश्वविद्यालय-अशोक “प्रवृद्ध’


19 जून 2024 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा बिहार के राजगीर में नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन किए जाने के बाद से नालंदा विश्वविद्यालय चर्चा में है। करीब पांच सौ वर्षों बाद 22 जनवरी 2024 को अयोध्या के नवनिर्मित श्रीराम मंदिर में श्रीराम लला की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा किए जाने के बाद 19 जून 2024 को 815 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद नालंदा के अपने पुराने स्वरूप में लौटने से ऐसे लोग भी खुश नजर आ रहे हैं, जो अयोध्या में मंदिर बनने के समय कह रहे थे कि मंदिर के स्थान पर विश्वविद्यालय बनना देश के हित में था। नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास शिक्षा के प्रति भारतीय दृष्टिकोण और इसकी समृद्धि की झलक दिखाता, दर्शाता है। इसका महत्व न केवल भारत के लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए समृद्धशाली अनमोल धरोहर के रूप में है। नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010 के तहत नालंदा के प्राचीन खंडहरों के निकट विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा किया जाना निश्चितरूपेण भारतीय प्राचीन गौरवमयी विरासत को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक सराहनीय पहल है।

अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से नालंदा में पढ़ने के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग व इत्सिंग के यात्रा विवरणों तथा अन्य दस्तावेजों से नालंदा विश्वविद्यालय, इसके महत्व और लोकप्रियता के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध काल में बिहार में अनेक विश्वविद्यालय थे। इनमें नालंदा आदि अंतर्राष्ट्रीय भुवन विख्यात महत्वपूर्ण विद्या मंदिर थे, जिसमें शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक, भौतिक तथा सांग्रामिक उन्नति के लिए शिक्षा दी जाती थी। ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार पांचवीं- छठी तथा सातवीं शताब्दियों में भारत विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षित देशों में अग्रगण्य था। यह एशिया का शिक्षा केंद्र समझा जाता था। प्रसिद्ध विद्वान के एम पणिकर अपनी कृति श्री हर्षवर्धन ऑफ कन्नौज के पृष्ठ 56 में लिखते हैं- उस युग के शिक्षालयों में बिहार का नालंदा सर्वश्रेष्ठ स्थान ग्रहण करता था। विदेशी यात्री ह्वेनसांग ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। मगध के सामंत शकादित्य ने इसका संस्थापन किया था। उनके वंशजों के शासनकाल में इसकी श्रीवृद्धि हुई। चीन, जापान और सुदूर पूर्व के देशों के छात्र भारत में शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। बौद्ध श्रमणों के संघाराम भी शिक्षालय ही थे। प्रत्येक प्रमुख नगर में संघाराम थे। विदेशी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार केवल कन्नौज में कई सहस्त्र संघाराम थे। जहां सहस्त्रों की तादाद में छात्र पढ़ते थे। केवल मथुरा में ही दो हजार बौद्ध भिक्षुकों के हीनयान और महायान संघाराम थे। प्रत्येक संघाराम कॉलेज था। जहां तर्क और धर्मसूत्र की विशेष शिक्षा दी जाती थी।

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 450 ईस्वी में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी, और महेंद्रादित्य की उपाधि धारण की थी। इस विश्वविद्यालय को हेमंत कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूर्ण सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद आने वाले सभी शासक वंशों ने भी इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला। नालंदा शब्द संस्कृत के तीन शब्दों ना+आलम+दा से बना है। इसका अर्थ है -ज्ञान के उपहार पर कोई प्रतिबंध न लगाएं। इस विश्वविद्यालय में केवल भारत से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया आदि देशों से भी छात्र साहित्य, ज्योतिष, मनोविज्ञान, कानून, खगोलशास्त्र, विज्ञान, युद्धनीति, इतिहास, गणित, वास्तुकला, भाषाविज्ञान, अर्थशास्त्र, चिकित्सा आदि विषय की शिक्षा प्राप्ति हेतु आते थे। इसी नालंदा विश्वविद्यालय में हर्षवर्धन, धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, नागार्जुन जैसे अनेक महान विद्वानों ने शिक्षा ग्रहण की थी। यहां एक समय में 10,000 से अधिक छात्र और 2,700 से अधिक शिक्षक एक ही आवासीय परिसर में निवास किया करते थे। छात्रों का चयन उनकी मेधा के आधार पर होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा आवासीय शिक्षण केंद्र भी था, जिसमें प्रवेश पाने के लिए अत्यंत कठिन परीक्षा से होकर गुजरना पड़ता था। तीन कठिन परीक्षा स्तरों से उत्तीर्णता प्राप्त करने के बाद ही विद्यार्थियों का नामांकन नालंदा विश्वविद्यालय में होने के कारण सिर्फ प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही इसमें प्रवेश पा सकते थे। इनके लिए शिक्षा, निवास और भोजन निःशुल्क था। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था। विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था। यह विश्व का प्रथम और प्राचीन भारत का एक प्रमुख और ऐतिहासिक शिक्षा केंद्र अर्थात भव्य विश्वविद्यालय था, जिसमें एक बड़े परिसर के अंदर 300 कमरे, 7 बड़े कक्ष और अध्ययन के लिए 9 मंजिला एक विशाल पुस्तकालय था, जिसमें लगभग 90 लाख पांडुलिपियां और 3 लाख से अधिक अनुपम पुस्तकें संग्रहित थीं। विश्वविद्यालय के इस पुस्तकालय को धर्मगूंज नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ सत्य का पर्वत था। इस 9 मंजिल और तीन भागों- रत्नरंजक, रत्नोदधि और रत्नसागर में विभाजित पुस्तकालय को 1193 ईस्वी में इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के द्वारा आक्रमण के समय आग लगा दी गई, जिससे पुस्तकालय के साथ ही नालंदा विश्वविद्यालय भी बर्बाद होकर रह गया। यहां विश्वविद्यालय परिसर में आग लगा दिए जाने से पुस्तकालय की लाखों पुस्तकें वर्षों तक जलती रहीं, और उसमें से धुआँ निकलती रही। इस घटना के समय खिलजी और उनकी तुर्की सेना ने हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि खिलजी बौद्ध धर्म का प्रसार नहीं चाहता था। वह सिर्फ इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहता था। उसने नालंदा के पुस्तकालय में आग लगा दी, सभी पांडुलिपियों को जला दिया और विश्व का भव्य ऐतिहासिक परिसर कई महीनों तक जलता रहा। रत्नोदधि पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें भी संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियां चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे। विल्सन, खंड 2 पृष्ठ 170 व अन्य पृष्ठों में लिखित अंशों के अनुसार जावा की वास्तुकला, अजंता तथा सिग्नी की चित्रकारियों से पता चलता है कि नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध जगत की आदर्श संस्था थी। सातवीं ख्रीस्ताब्दी में भी इसे 200 गांवों का राजस्व उपलब्ध होता था। इस विद्यालय के कुलपति का सम्मान श्रींगेरी मठ के शंकराचार्य सा होता था। छात्रों की संख्या सहस्त्रों में थी। सभी श्रेष्ठ योग्यता तथा प्रतिभा के मनुष्य वहां शिक्षार्थ पधारते थे। अनेक आचार्यों की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उनके चरित्र निर्मल और आदर्श थे। धर्म सूत्रों का अक्षरशः परिपालन होता था। प्रातः से संध्या तक वे तर्क में निमग्न रहते थे। भिन्न- भिन्न नगरों से सैकड़ो की तादाद में बुद्धिमान लोग तर्क तथा न्याय में दक्षता प्राप्त करने तथा संशय निवारण, निराकरण के लिए यहां आते थे। गुणमति और स्थिरमति अपने युग के संभ्रांत आचार्य थे। इनकी अध्यापन शैली विश्व विश्रुत थी। प्रभामित्र तथा जिनमित्र तर्कवागीश थे। शीलभद्र से ह्वेनसांग ने शिक्षा पाई थी। धम्मपाल और चंद्रपाल बड़े गौरवपूर्ण कुलपति थे। योगसूत्र तथा अन्य शास्त्रों की शिक्षा ह्वेनसांग ने शीलभद्र से ही प्राप्त की थी। नालंदा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था। यद्यपि नालंदा बौद्धों का विश्वविद्यालय था, तथापि शिक्षा का दृष्टिकोण असंप्रदायिक था। वहां वेद, शब्द शास्त्र, तर्क न्याय, गणित तथा चिकित्सा की भी पढ़ाई होती थी। हीनयान, महायान तथा वैदिक संप्रदाय के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र भी इस संस्था में पढ़ते व इससे प्रेरणा पाते थे। नालंदा प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। भारत की साधारण शिक्षा के संबंध में भी हवेनसांग लिखते हैं। शिक्षा का प्रारंभ 12 अध्यायों की पुस्तक सिद्ध वस्तु से होता था। सात वर्षों की अवस्था प्राप्त करते ही छात्रों को पांच विद्याएं पढ़ाई जाती थी। व्याकरण, वास्तुकला, हेतु विद्या, ज्योतिष, तर्क और अध्यात्म की शिक्षा छात्रों को दी जाती थी। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के शिक्षाओं की व्यवस्था थी। ब्राह्मण वेद भी पढ़ते थे। नालंदा में सैनिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं के बराबर थी। यही कारण है कि हर्षवर्धन के पश्चात भारत की राज्य लक्ष्मी डांवाडोल हो गई। भारत के अन्य विभागों में भी आश्रमों की कमी न थी।

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