पहली बारिश में ये रंग उतर जाते हैं ।
सर्दी गर्मी के तो होते हैं रंग ये कच्चे ,पहली बारिश में ये रंग उतर जाते हैं ।
बरसाती रंग होता गाढ़ा व चमकीला ,
सबको ढक बरसाती रंग चढ़ जाते हैं ।।
ग्रीष्म ऋतु में पेड़ पौधे सारे सूखते ,
सूखते वृक्ष भी पुनर्जन्म पा जाते हैं ।
लग जाते हैं पौधों में भी जो दीमक ,
पहली बारिश दीमक को खा जाते हैं ।।
चहुंओर हरियाली ही यह छा जाती ,
कृषक बंधु हमारे ये हरसा जाते हैं ।
लग जाते तब जोतनी बोअनी के फेरे में ,
आराम को भी तब वे तरसा जाते हैं ।।
कहीं मेंढ़क टर्र टर्र बहुत ही करते ,
कहीं झींगुर भी गीत बहुत ही गाते हैं ।
बरसात का सुबह शाम यह सुहानी ,
कजरी गीत भी तब बहुत सुहाते हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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