कब तक बैठी रह लेगी यह रात निगोड़ी
डॉ रामकृष्ण मिश्रझिंगुर के पायल :स्वर में क्या रोना -धोना
सन्नाटा पसरा है सारा कोना: कोना।
नहीं दिखाई देता कोई बस जुगनू भर
नहीं जागती लगती है चातक की जोड़ी।
आसमान के दीए जलते चिढ़ा रहे -से
लगते , थाली में कुछ मोती दिखा रहे -से।
कृष्ण व्याल की काया पसर गयी हो मानो
हवा कहीं बैठी सुस्ताती होगी थोड़ी।।
जीवन का संदर्भ रागमय हो सकता है
अंतर की पीड़ा का अनुभव खो सकता है।
नव विहान के अंकुर आ जाने वाले हों
समझा जाए भले लगे हों दूना कोड़ी।।
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रामकृष्ण
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