अत्याधुनिक रहन-सहन स्वास्थ्य के लिए घातक
--राधामोहन मिश्र माधव
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
( सहज स्वाभाविक धर्म धारण अंततः शरीर पर ही निर्भर है। )
स्वास्थ्य ही धन है ( health is wealth )।
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है ( sound mind in a sound body )।
जीवन की गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है जब शारीरिक स्वास्थ्य सही हो। वैदिक पद्धति से जीवन यापन (प्राचीन विधि, पारंपरिक जीवन) धीरे-धीरे समाप्त हो गया। जब से भारत के निवासी पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर जीवन बिताने लगे तब से नये -नये छोटे -बड़े रोग बढ़ने लगे। यहां तक कि कोविड वायरस जनित महामारी ने हमें पाठ पढ़ा दिया कि हाथ जोड़कर अलग से नमस्कार करना ही वैज्ञानिक तरीका है न कि हाथ मिलाना।
खान-पान में बहुत सारे बदलाव आ गये। हम कुछ बदलावों की गड़बड़ियां देखें--
अनाज-
मिलों में तैयार होने की प्रक्रिया में चावल की खूबसूरती बढ़ाने के लिए केमिकल पालिस चढ़ाया जाने लगा जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। फिर खेतों में केमिकल खाद डाले जाने से अन्न में धीमा जहर घुलने लगा। घर में ढेकुली में कूटे धान का चावल स्वाद और पौष्टिकता में कहीं बढ़कर होते थे।
गेहूं चक्की में पिसा जाता था तब स्वाद और पौष्टिकता के क्या कहने, अब मिलों में विटामिन जला आटा तैयार होने लगा।
पालिस की हुई दालों का भी यही हाल।
तेल--
तेलहन की कमी के कारण पाम आयल मिक्स्ड रिफाइंड तेल चलन में आया जो सरासर स्वास्थ्य घातक है।
सब्जी और फल--
सब्जियों के पुराने स्वाद गायब हो गये।
फूलगोभी की सुगंध विदा हो गयी। कद्दू - लौकी की स्वादिष्ट मिठास गायब हो गयी। टमाटर का स्वाद फीका हो गया। आए दिन इनकी वृद्धि के लिए पौधों में लगे रहने की अवस्था में केमिकल इंजेक्शन दिए जाने लगे। इसी तरह मुनाफे के लिए अनेक सब्जियों को खराब कर स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जाने लगा। सेब, तरबूज-खरबूज आदि फलों का भी कुछ ऐसा ही हाल। ये पौष्टिकता तो खो ही रहे हैं उल्टे सारे शरीर के लिए घातक भी बन रहे।
दूध--
दूध सर्वोत्तम आहार है पर शुद्ध दूध, घी घटने लगे। पनीर में मिलावट होने लगी। सही छेने के रसगुल्ले भी मुहाल। दही की गुणवत्ता गायब।
गुड़ की जगह चीनी का उपभोग भी कम हानिकारक नहीं।
चाय के प्रचलन के बाद कोष्ठबद्धता (कब्जरोग) में वृद्धि हुई क्योंकि चाय में दूध, चीनी मिलाये जाते हैं, यह आंतों के लिए हानिकर है। गुड़ की चाय नींबू वाली ही हानिरहित है। (आप रोजाना कभी दूध-चीनी वाली, कभी गुड़, नींबू वाली चाय पीकर धीरे धीरे आदत बदल सकते हैं।)
इसी तरह कई बदलाव जरूरी हो गये हैं।
भोजन शैली--
जमीन पर बैठकर भोजन करना हितकर है। यह प्राचीन शैली उत्तम तथा स्वास्थ्य रक्षक है। कुर्सी -टेबुल पर खाने से पाचन-क्रिया प्रभावित होती है।
जन-जीवन में पैठ बना चुके रहन-सहन को दुरुस्त करने के लिए जन जागृति आवश्यक है। इसके लिए मुहल्ले के स्तर पर बैठकें आयोजित कर सामूहिक परामर्श और प्रेरणा की जरूरत है।
पुरानी शैली का रहन, टाइट वस्त्र न पहन कर बदन के लिए सहज सुविधाप्रद हल्के, ढीले कपड़े धारण करना स्वास्थ्य के अनुकूल है।
सोच-विचार की शुद्धता, समय पर सोना-जागना, समय पर मौसम के अनुकूल भोजन, शरीर के तमाम अंगों को कार्य करने में प्रयुक्त कर संचालित करना, प्रातः -भ्रमण, शारीरिक एवं मानसिक परिश्रम का दैनिक जीवन में अनिवार्य स्थान है।
अंत में, औषधि प्रयोग पर भी ध्यान देना आवश्यक है। आधुनिक एलोपैथी ट्रीटमेंट अपरिहार्य होने पर ही लें वरना हमारी अति प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धति सर्वोत्तम है। एलोपैथिक दवाएं रोग को दबा देती हैं, जबकि आयुर्वेदिक औषधियां रोगों का निदान कर जड़ से खत्म करती हैं। छोटी-छोटी बीमारियों में घरेलू उपचार, दादी -नानी के नुस्खे अंग्रेजी एनाल्जेसिक टैबलेट्स और सिरप से बेहतर और सुस्वास्थ्यकर हैं।
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