भरत का वन के लिए प्रस्थान

भरत का वन के लिए प्रस्थान

डॉ राकेश कुमार आर्य
अगले दिन भरत जी के राज्याभिषेक की तैयारी का आदेश वशिष्ठ जी की ओर से जारी हुआ। विधि के अनुसार विद्वानों ने भरत जी का मंगल गान करना आरंभ कर दिया। जब भरत की को इसकी जानकारी मिली तो वह अत्यंत दु:खी हुए । उन्होंने स्वयं ने उस मंगलगान को रुकवा दिया। तब उन्होंने वशिष्ठ जी सहित सभी विद्वानों और मंत्रिमंडल के लोगों के समक्ष अपने मन के उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि वह अपने पिता तुल्य भाई रामचंद्र जी के रहते कभी राजा नहीं बन सकते । यदि इस अवसर पर मुझे राजा बनाने की तैयारी की गई तो यह मेरे लिए अत्यंत दुखदायक होगा । मेरे लिए उचित यही है कि मैं राज्य ग्रहण न करते हुए अपने भाई राम को वन से लेकर आऊं और जो कुछ भी अब तक हुआ है उस सब की उनसे क्षमा याचना करूं ।

अगले दिन होने लगा, भरत का मंगल गान।
भड़के भरत कहने लगे, बंद करो यह गान।।

राजापद लूंगा नहीं , कठोर मेरा संकल्प।
हो नहीं सकता राम का, कोई और विकल्प।।

गुरु वशिष्ठ के सामने, प्रकट किए उदगार।।
राम को लाने चल दिए, करके सोच विचार।।

अनेक प्रकार के कष्टों को झेलते हुए, अपने अनेक अधिकारियों, दरबारियों , गुरुजनों और वरिष्ठ जनों के साथ महात्मा भरत अपने बड़े भाई राम को वन से लाने के लिए चल दिए। उनका यह कठोर संकल्प था कि वह राज्य को अपने बड़े भाई राम के रहते स्वीकार नहीं करेंगे।

कष्ट सहे - आगे बढ़े, पहुंचे राम के देश ।
गले मिले श्री राम के, मिट गए सभी क्लेश।।

अश्रु धारा बह चली , मिले भरत और राम।
गले से दोनों लग गए , मर्यादा और भाव ।।

भरत के अद्भुत भाव से, अभिभूत सभी लोग।
श्रद्धा की नदिया बही, था विस्मयकारी योग।।

(इससे पहले जब भरत की सेना जंगल में से निकल रही थी तो अनेक पशु पक्षी इधर-उधर भाग दौड़ करने लगे थे। उनके शोरगुल को सुनकर रामचंद्र जी ने भांप लिया कि कोई असहज सी घटना हो रही है। जिससे पशु पक्षियों में इस प्रकार की बेचैनी होने लगी है। तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा था कि तुम ऊंचे पेड़ पर चढ़कर देखो कि ऐसी कौन सी असहज स्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे यह पशु पक्षी बेचैन दिखाई दे रहे हैं ? लक्ष्मण जी बड़े भाई की आज्ञा से एक ऊंचे पेड़ पर चढ़कर देखते हैं तो उन्हें एक विशाल सैन्य दल आता हुआ दिखाई देता है। इस पर वह इस भ्रांति का शिकार हो जाते हैं कि भरत उनसे युद्ध करने के लिए आ रहा है अपनी इस भ्रांति के वशीभूत होकर लक्ष्मण श्री राम से भरत को लेकर कई प्रकार के अपशब्दों का प्रयोग कर जाते हैं और कहने लगते हैं कि निश्चय ही वह कोई गलत निर्णय लेकर यहां आ रहा है। तब रामचंद्र जी लक्ष्मण से कहते हैं कि 'लक्ष्मण! तुम नहीं जानते कि भरत कितने ऊंचे आदर्शों का भाई है ? वह ऐसा कभी नहीं सोच सकता और यदि तुझे राज्य की इच्छा उत्पन्न हो गई है तो जब भरत मेरे सामने आ जाएगा तो तू देखना जब मैं उससे कहूंगा कि यह सारा राज्य तू लक्ष्मण को दे दे तो वह तुरंत सारा राज्य तुझे दे देगा। इस पर लक्ष्मण जी अत्यधिक लज्जित हुए।)

बोले ! भरत श्री राम से , लौट चलो निज धाम।
पिता गए परलोक को, करो राज के काम ।।

पिता तुल्य मेरे लिए , और मेरे भगवान।
चलो ! विराजो राज पर, भरत कहें निष्पाप।।

मां ने जो कुछ भी किया, नहीं मेरा कोई दोष।
मां ने अच्छा ना किया , हुआ मुझे भी रोष।।

इन सब बातों को कहते-कहते भरत ने अपने पिता महाराज दशरथ के परलोक गमन की बात भी रामचंद्र जी से कह दी।
तब :-

मिली पिता की सूचना, दु:खित हुए श्री राम।
आंखों से आंसू बहे, देख रहे नर नार।।

रामचंद्र जी ने सब बातों को सुनकर अपने भाई भरत के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्शन करते हुए कहा कि :-

विनम्र भाव से राम ने, कह दी मन की बात।
अवध धाम लौटूं नहीं, पूर्ण करूं वनवास।।

भरत जी भी उस समय अपने भाई को लेने के लिए ही आए थे। उनके मन में किसी प्रकार का पाप नहीं था। स्वार्थ उनको छू भी नहीं गया था। इतने बड़े साम्राज्य को लात मारते हुए वह निष्पाप हृदय से अपने भाई से अयोध्या लौटने का अनुरोध बार-बार कर रहे थे। संसार के इतिहास का यह इतना बड़ा उदाहरण है कि जो अन्यत्र खोजने से भी नहीं मिलता। आज के स्वार्थ से भरे हुए संसार में जब भाई-भाई एक-एक इंच के लिए कुत्ते की तरह लड़ रहे हैं, तब भरत का यह त्याग आज के प्रत्येक स्वार्थी भाई को बहुत कुछ बता जाता है ?
भरत को हठ थी कि भाई अयोध्या चलें । जब वह ऐसा कर रहे थे तो उनके भीतर श्रद्धा का सागर उमड़ रहा था। उधर राम के लिए मर्यादा बीच में आकर खड़ी हो गई थी। वे लिए गए संकल्प को बीच में तोड़ना उचित नहीं मानते थे और भाई के आग्रह को भी वह नकारना नहीं चाहते थे। फलस्वरूप दोनों के बीच बहुत ही मर्यादित ढंग से संवाद आरंभ हो गया। वास्तव में यह संवाद श्रद्धा और मर्यादा का संवाद था।

बीच दोनों के हुआ, बड़ा उच्च संवाद।
तर्क वितर्क करने लगी, श्रद्धा और मियाद।।

रामचंद्र ने दे दिया , भ्राता को उपदेश।
राजनीति कहते किसे , चलता कैसे देश।।

बोले भरत ! क्यों दे रहे, मुझको यह उपदेश।
राजनीति से क्या मेरा, हल होता उद्देश्य।।

भरत जी को रामचंद्र जी का किसी भी प्रकार का उपदेश अच्छा नहीं लग रहा था। वह नहीं चाहते थे कि उन्हें बड़े भाई उपदेश देकर और संतुष्ट करके अयोध्या लौटने का आदेश दें। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि श्री राम स्वयं चलें और राजकाज अपने आप संभालें। इसलिए वह कहने लगे :-

राजनीति और राष्ट्र को, आप संभालो नाथ।
निज सेवक मुझे जानकर, रख लो अपने साथ।।

वाद और संवाद में, पड़ गए भारी राम।
भरत को बड़े प्यार से लौटाया निज धाम।।

विनम्र हो श्रद्धा झुकी, जोड़े दोनों हाथ।
खड़ाऊ मुझको दीजिए, हे नाथों के नाथ ।।

मर्यादा हर्षित हुई, करी कामना पूर्ण।
ऋषिगण सभी प्रसन्न थे, बरसाते थे फूल।।

वास्तव में दोनों भाइयों के बीच जो भी संवाद हो रहा था वह श्रद्धा और मर्यादा के बीच होने वाला संवाद था। अंत में विनम्रता के साथ श्रद्धा झुक गई, परंतु मर्यादा ने भी अपना धर्म निभाते हुए बड़े प्यार से श्रद्धा की विनती को स्वीकार कर उसे खड़ाऊ प्रदान कर दी।

मर्यादा टूटी नहीं , श्रद्धा की नहीं हार।
किसका अभिनंदन करें, लोग रहे थे विचार।।

मर्यादा की छांव में , श्रद्धा पड़ी विनम्र।
दोनों ही निष्पाप थीं, हृदय से थीं नम्र।।

भाई से लेकर विदा, लिए पादुका हाथ।
अवध धाम को चल दिए, भरत सभी के साथ।।


( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )
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