नशामुक्ति दिवस
शराब ने कहा मानव से ,कैसे कैसे होते हैं मानव ।
संगत से आदत डालते ,
बन जाते हैं स्वयं दानव ।।
मुझे तो स्वयं से नफरत ,
मानव तो अभी दूर रहे ।
मेरी तो है अलग मजबूरी ,
मानव भी ये मजबूर रहे ।।
ईश ने नहीं जन्म दिया है ,
मानव ही है जन्मदाता ।
मैं तो करता सबसे घृणा ,
बरबस बनाए मित्र भ्राता ।।
मेरा जीवन जन्म से कैदी ,
जन्म लेते बोतल में कैद ।
जिसने की गाढ़ी मित्रता ,
बचा नहीं सका उसे बैद ।।
मैं किसीको छूता हूॅं नहीं ,
हमें देख मानव जी जाते ।
लेते घूॅंट घोंटता नहीं है ,
फिर भी मानव पी जाते ।।
दारू मेरा छोटा यह भाई ,
अल्प आय करते गुजारा ।
मध्यम आय मेढक बनते ,
हमें अपना बने आवारा ।।
हमें किसी से प्यार नहीं ,
फिर भी सब करते प्यार ।
पीते वक्त चेहरा तो देखो ,
कैसे करते मुझे इनकार ।।
फिर भी जबरन जो घोंटे ,
उससे उगलवाता खून हूॅं ।
मानव होता मुझमें पागल ,
ऐसा होता मैं ये जुनून हूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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