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धर्मनिरपेक्षता का बेसुरा ढोल

धर्मनिरपेक्षता का बेसुरा ढोल

जिस ढोल को कोई बजाता नहीं उस ढोल को हम ही बजाते हैं।
चाहे हो यह बेसुरा मगर हम सब इसके गुण गाते हैं।
है ढोल सभी के पास मगर ये ढोल तो सबसे निराला है।
बजता है हमारे देश में ही कहीं और नहीं बज पाता है।
यह ढोल भले है अर्थहीन फिर भी इसे सार्थक मान लिए।
जैसे तैसे ये क्यों न बजे हम सब मिल इसे बजा ही लिए।
पूरी दुनियां के कई देश देखते हमारी ओर ही है।
कैसे बजता है ढोल यहां जो बजता कहीं और नहीं है।
ये ढोल बहुत प्राचीन नहीं ऐसा कोई ढोल न पहले था।
जैसे सबके थे ढोल वैसे ही इस देश का अपना ढोल भी था।
हमने उस ढोल को फेंक दिया जब नए ढोल को देख लिया।
नया ढोल सुहावन लगता है,पर लगता है यह कच्चा है।
रंग रोगन इसपर अच्छे हैं, कई रंग इसी पर चढ़ते हैं ।
इस ढोल को सुर में लाने की कोशिश तो यहां सब करते हैं।
लेकिन इसके सब घाट एक सुर में न कभी भी बंधते हैं।
हैं कई तरह के ढोल सभी देशों में सब ही बजते हैं।
मान्यता प्राप्त बस एक ढोल सबही देशों में रहते हैं।
ये ढोल नहीं सतयुग में था ये ढोल नहीं त्रेता में था
ये ढोल नहीं द्वापर में था, नहीं कलियुग के शुरुआत में था।
आजादी के बाद ढोल यह बनकर भारत में आया।
और बेसुरा बेढंगा ये ढोल सभी के मन भाया।
पहले का ढोल सनातन था होता था उसका बाजन था।
थे और कई ही ढोल यहां पर राजा सबका सनातन था।
पहचान देश का होता था जब ढोल सनातन बजता था।
अब भी तो ढोल बजता ही है पर ढोल सनातन का नहीं है।
निरपेक्ष नाम का ढोल धर्म निरपेक्ष ताल देता ही है।
कहीं ढोल ईसाइयत की बजे कहीं ढोल ईस्लामी बजता है।
लेकिन हिंदूस्थान में भी कहो हिंदू ढोल क्या बजता है?- सुशील कुमार मिश्र
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