दीजिए न दोष केवल, बच्चों को देखिए,
खुद के गिरेबान में, झाँक कर तो देखिए।सिखाया था बच्चों को, पैसा ही सब कुछ,
पैसे की हबस में पीछे, भागकर तो देखिए।
रिश्तों का महत्व आपने, समझाया नहीं कभी,
अपने पिता माता से, मिलवाया ही नहीं कभी।
दादी की मत्यु सुनकर, चाहा था आना उसने,
परेशानी होगी सोचकर, बुलवाया नहीं कभी।
बोया पेड़ बबूल का तब आम की चाह क्यों,
मंजिल बतायी विदेश, तब देश की राह क्यों?
बुलन्दियों से धरा पर, कौन चाहता है आना,
ज़ख्म खुद ही दिए खुद को, आह भर रहे क्यों?
अ कीर्ति वर्द्धन
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