भूखे ही सो जाते हैं ।
समय की मार बुरी होती ,न चीखते न चिल्लाते हैं ।
आय स्रोत प्रथम छिनता ,
जिनसे विवश हो जाते हैं ।।
कमाऊ पूत जीवन खोता ,
या कमाऊ बीमार पाते हैं ।
बीमार हो कमजोर होते ,
वे भी विदा लेकर जाते हैं ।।
या शराबी जुआरी हैं होते ,
खेत खलिहान बिक जाते हैं ।
सबकुछ खो असहाय होते ,
तब विवश हम हो जाते हैं ।।
नहीं बचा कोई भी सहारा
बेवश बेसहारा ही पाते हैं ।
दूजे तीजे ही सहारे बनते ,
भूमिका निज वे निभाते हैं ।।
अपने आपमें दुःखी होकर ,
दुःख दर्द में वे खो जाते हैं ।
पेट के नीचे तकिए डालकर ,
बस भूखे ही सो जाते हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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