जैसे जैसे उम्र बढी है, अनुभव बढता जाता है,
साधक का चिन्तन और दर्शन बढता जाता है।मानवता का भाव जागता, सकारात्मक सोच,
ईश्वर का अस्तित्व, आस्था भाव बढता जाता है।
अपने बच्चे व्यस्त हो गये, अपने अपने कामों में,
तन्हाई का दौर बुढ़ापा, बातों को मन तरसाता है।
नही मिलें जब संगी साथी, व्याधि भी बढ़ती जाती,
चौथा दौर चला उम्र का, रिश्ता नाता याद आता है।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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