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आजादी और हम

आजादी और हम

1947 मे हम दासता के चंगुल से बाहर निकले। हम 78वां स्वतंत्रता दीवस मनाने जा रहे हैं। पर क्या हम वास्तव मे आजाद हैं।? नही, सैद्धांतिक रुप से भले ही हम आजाद मुल्क ने नागरिक अपने आपको मान लें। पर ब्यवहारिक रुप से हम आज भी दासत्व की जिन्दगी जी रहे हैं।
आप पूछ सकते हैं मेरा अपना संविधान है। मेरा अपना प्रशासनिक ब्यवस्था है।फिर हम आजाद क्यों नहीं हैं?
आप को जानकर आश्चर्य होगा कि देश को आजाद हुए 77वर्ष बित गए पर संविधान ने किसी भी भाषा को अभी तक राष्ट्र भाषा के रुप में मान्यता नहीं दिया है। जबकि बच्चों को हिन्दी राष्ट्रभाषा है पढाया जाता है।
अवकाश की जब बात करते हैं तो रविवारीय अवकाश का नाम आता है। पर यह भी जानकर आश्चर्य होगा कि यह अवकाश भी आजादी के पूर्व से ही ईसाई मतानुसार दिया जा रहा है। क्योंकि ईसाइयों के लिए यह एक पवित्र दिन है।
कानून के मामले म़े भी हमारी स्थिति वही है जो कल थी। भारतीय दण्ड विधान,भारतीय साझेदारी अधिनियम, भारतीय कम्पनी अधिनियम आदि जितने भी विधान और अधिनियम हैं सबो के पहले भारतीय शब्द केवल जोड़ दिया गया है। पर सारे अधिनियम और विधान ही हैं जो आजादी के पूर्व थे।
अंग्रेजी शासन काल मे दंडे को न तो अस्त्र की श्रेणी में रखा गया था न शस्त्र की श्रेणी मे रखा गया था। कारण सिपाही /अंग्रेज किसी भारतीय क़ो अगर दंडे से किसी को अनायास बिना गलती के मार भी दे तो उसपर किसी भी प्रकार का मुकदमा नहीं किया जा सके।
आज भी दंडे को किसी अस्त्र/शस्त्र की श्रेणी में नहीं रखा गया है। जबकि
शिक्ख समुदाय के लिए धार्मिक
मान्यतानुसा कटार रखना अनिवार्य है। जिसे सरकार के नियमानुसार 5" की बाध्यता कर दी गई है।
स्कूल, कालेज,सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों में जो ड्रेस कोड की ब्यवस्था है वह वही है ,जो गुलाम भारत मे थी। अर्थात शर्ट ,पैट और कोर्ट जबकि मेरा अपना पोशाक है जिसे कभी भी अंगीकार नही किया गया।
जितेन्द्र नाथ मिश्र 
 कदम कुआं , पटना।
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