मृत्यु-बोध हो जाए यदि !

मृत्यु-बोध हो जाए यदि !

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी" 
हम पल-पल मरते रहते हैं जीवनभर, क्योंकि मृत्यु-भय सदा सताते रहता है। वस्तुतः वह मृत्यु नहीं, प्रत्युत मृत्यु का भय मात्र होता है। जबकि मृत्यबोध तो विरले ही किसी को, बड़े सौभाग्य से लब्ध हो पाता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं—मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यतताममि सिद्धानां, कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। (श्रीमद्भगवत्गीता ७-३) (हजारों मनुष्यों में कोई एक ही कल्याण सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्न करने वाले हजारों में से कोई एक ही मुझे तत्त्व से यथार्थतः जान पाता है।)

मृत्युबोध के साथ भी कुछ ऐसी ही बात है। मृत्युबोध भी हजारों-लाखों में किसी एक को होता है। जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी एक न एक दिन मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है—जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः..., किन्तु वह मृत्यु स-बोध नहीं होती। मृत्यु स-बोध हो जाए यदि, फिर क्या कहना !

सच तो ये है कि जीवन ही बोधयुक्त नहीं होता, फिर मृत्यु बोध-युक्त भला कैसे हो सकती है !

हम जन्म ‘ लेते ’ नहीं, प्रत्युत ‘ले लेते ’ हैं। लेना और ले लेना में बहुत अन्तर है। और चुँकि जन्म ले लेते हैं, इसलिए आगे अहम् मद में खोए हुए जीवन भी जी लेते हैं। अन्त-अन्त तक अहम् वाली वही मदहोशी बनी रहती है। सच्चाई ये है कि जिसे जीना ही नहीं आया, उसे भला मरना क्या आयेगा !

जीना-मरना दोनों ही, अति विशिष्ट कला है। इसे समझने-जानने वाले विरले ही होते हैं। जिसने जीना सीख लिया, उसे मरना भी आ जायेगा।

शरीरविज्ञान के अनुसार २८०दिन ( या इसके करीब) मनुष्य का गर्भवास हुआ करता है। जो मनुष्य जितने दिनों तक गर्भवास करता है, लगभग उतने ही दिनों पूर्व से उसे मृत्यु-संकेत भी मिलने लगता है। इन संकेतों को ठीक से समझने और उनका समुचित उपयोग करने के लिए योग व तन्त्र शास्त्र दिशा-निर्देश करते हैं। मृत्यु-संकेत प्राप्त्योपरान्त कुछ कर्मकाण्ड भी निर्दिष्ट हैं। कुछ सावधानियाँ भी आवश्यक हैं। आसन्न मृत्यु के संकेतों की विस्तृत चर्चा पुराणों में उपलब्ध है।

ध्यातव्य है कि ‘मृत्यु-संकेत’ और ‘मृत्यु-बोध ’— दोनों बिलकुल ही अलग-अलग बातें हैं। अलग-अलग अनुभूतियाँ हैं।

यूँ तो मृत्यु-संकेत मिलता सबको है, किन्तु समझने-समझाने-कहने-बोलने की क्षमता प्रायः न्यून या कि शून्य हो जाती है। कुछ व्यक्तियों में किंचित् स्पष्ट रहता भी है, तो आजीवन व्यतीत किए गए भवजाल के प्रतिप्रभाव में ही उलझा रह जाता है—धन, पुत्र, कलत्र, मित्र, शत्रु आदि में। सामान्य जन की बात ही क्या, जड़भरत जैसी महान आत्मा को भी मेमने के मोह ने पुनः खींच लाया था भवसागर में।

‘मृत्यु-बोध’ मृत्यु-संकेत से बहुत ऊपर की चीज है। मृत्यु-संकेत भले ही मिल जाए सबको, किन्तु मृत्यु-बोध सौभाग्य से ही लब्ध होता है। लब्ध होने पर भी ‘बोध’ के उस दुर्लभ और मूल्यवान अनुभूति को सही ढंग से समझना, संजोना और उसके बाद की क्रियायें सम्पन्न करना और भी कठिन है।

इसे कुछ यूँ समझें— रति-सुख मनुष्य ही नहीं मनुष्येतर प्राणी भी करते हैं। चुँकि मनुष्य अत्यधिक प्रबुद्ध है, इस कारण इसकी सम्यक् अभिव्यक्ति कर सकता है। औरों को न सही, उस भुक्ता सहचरी के प्रति तो अभिव्यक्ति हो ही सकती है। अनुभूति के उस अद्भुत क्षण में किंचित् टिकाव-ठहराव का प्रयत्न तो हो ही सकता है। और टिकने-ठहरने की ये कला यदि सीख ली, तो मृत्युबोध को समझने में भी सुविधा हो जायेगी। और समझ गए यदि तो आगे की क्रियाएँ सरल-सहज हो जायेगीं।

और तब, संयोग-सौभाग्य से बोध के लक्षण भासित होने लगें, तब सतत अभ्यास में संलग्न होकर, ‘महाश्मशान’ तक पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और यदि वहाँ तक न पहुँच सके तब भी, उसके प्रवेश द्वार ‘मुक्त त्रिवेणी’ पर ठहर कर, द्वार खुलने की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। वस, द्वार खुला कि खिंचे चले गए अनायास।

ये बातें कोरे सिद्धान्त की नहीं, प्रत्युत गहन अनुभूति की हैं और अनुभूति को शतशः अभिव्यक्ति देने का सामर्थ्य शब्दों में नहीं है । आप कह सकते हैं कि तब ये बातें, ये सिद्धान्त क्या कोरी कल्पना है?

जी नहीं, कल्पना नहीं। मिथ्या तो कदापि नहीं। ये बातें प्यास जगाने के लिए हैं। भ्रम वाला नहीं, सत्य वाला प्यास—सत्य पिपासा।

शबरी सी प्रतीक्षा करें। राम अवश्य आयेंगे।

और तब तक प्रशस्त मार्ग की याचना करते रहें—

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
 (ईशावाष्योपनिषद १५).
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