कल्प-सरीखे गुजरे कितने विरस बरस, तुम नजर न आए।

कल्प-सरीखे गुजरे कितने विरस बरस, तुम नजर न आए।

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
कल्प-सरीखे गुजरे कितने विरस बरस, तुम नजर न आए।
रात रात भर जाग जाग कर ,
कुसुमित हार पिरोए कितने ।
इंतजार ही करते करते ,
बिखरे हुए म्लान सब जितने।
खंजन रहे भींगते अविरत, घोर मेघ अम्बर में छाए ।
खुले झरोखों से यादों के,
नयन निरंतर रहे जोहते।
झलक कहीं थोड़ी पाने को
सपने सारे रहे बिखरते ।
देख रहे हैं त्रुटित साज को, गीत रहे जितने अनगाए ।
शायद तुम आओगे,प्रियतम!
बन्धन हैं उद्दाम आस के ।
सहलाओगे हाथ-पाँव, जब
टूटे होंगे तार साँस के ।
इस सरायफानी दुनिया में, झूठे सुख सब दुख के जाए ।
[दुख (दुःख)के जाए =दुःख से उत्पन्न ]
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