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गुरुपूर्णिमा - शिष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन !

गुरुपूर्णिमा - शिष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन !

गुरुपूर्णिमा, शिष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन है, यह गुरु और गुरु तत्व का उत्सव है। यह गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है, जो हमें मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं व हमारा हाथ पकड़ कर हमें वहां तक ले जाते हैं । इस दिन गुरु-शिष्य परंपरा के संस्थापक आदि गुरु महर्षि व्यास की पूजा की जाती है। इसलिए इसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस वर्ष गुरु पूर्णिमा 21 जुलाई 2024 को रविवार के दिन मनाई जाएगी।

गुरु ईश्वर का साकार रूप होते है। हिंदू संस्कृति ने गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया है; क्योंकि गुरु साधक को ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना सिखाते हैं, उससे करवाते हैं और उसे ईश्वर प्राप्ति में मदद करते हैं। गुरु विभिन्न तरीकों से शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं और जीवन भर लगातार उन पर अपनी कृपा बरसाते हैं। गुरु के ऋण को चुकाना असंभव है, किन्तु हम विनम्रतापूर्वक गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर सकते हैं ! गुरु पूर्णिमा पर गुरु तत्व अन्य दिनों की तुलना में एक हजार गुना अधिक कार्यरत होता है। इसलिए सेवा और त्याग भी हजार गुना अधिक फलदायी होता है । गुरुपूर्णिमा शिष्यों को गुरु तत्व की सेवा करने और गुरु की कृपा प्राप्त करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करती है।

सभी गुरु, बाह्य रूप से स्थूल शरीर से अलग होते हुए भी, आंतरिक रूप से एक हैं। जिस प्रकार गाय के प्रत्येक थन से एक समान शुद्ध दूध निकलता है, उसी प्रकार प्रत्येक गुरु में गुरुत्व एक समान होता है, उसी प्रकार उनसे निकलने वाली आनंद की तरंगें भी एक समान होती हैं। जैसे समुद्र की लहरें किनारे की ओर आती हैं, वैसे ही ब्रह्म/ईश्वर यानी गुरु की लहरियाँ समाज की ओर आती हैं। जिस प्रकार सभी तरंगों में जल का स्वाद एक समान है, उसी प्रकार सभी गुरुओं में तत्त्व एक ही है, ब्रह्म।

गुरु का महत्व : इस जीवन में छोटी-छोटी चीजों के लिए भी, हर कोई किसी न किसी से मार्गदर्शन लेता है, चाहे वह शिक्षक, डॉक्टर, वकील आदि हों। फिर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाने वाले गुरु के महत्व की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

संत और गुरु : सकाम और निष्काम की प्राप्ति के लिए संत बहुत कम मार्गदर्शन देते हैं। कुछ संत लोगों की व्यावहारिक समस्याओं को हल करने के साथ-साथ बुरी शक्तियों के कारण होने वाले कष्टों को दूर करने के लिए भी काम करते हैं। ऐसे संतों का यही काम है। जब कोई संत किसी साधक को अपना शिष्य स्वीकार कर लेते हैं तो वह उसका गुरु बन जाता है। गुरु ही निष्काम (ईश्वर) की प्राप्ति का पूर्ण मार्गदर्शन करते है। एक बार जब कोई संत गुरु के रूप में कार्य करना शुरू कर देते हैं, तो जो लोग उसके पास अपनी सकाम समस्याओं को हल करने के लिए आते हैं, उनका मार्गदर्शन करने की इच्छा धीरे-धीरे कम हो जाती है और अंततः समाप्त हो जाती है; लेकिन जब वे किसी को अपना शिष्य स्वीकार करते हैं तो उसका पूरा ख्याल रखते हैं। प्रत्येक गुरु संत है; लेकिन प्रत्येक संत गुरु नहीं होते । हालाँकि, संतों के अधिकांश गुण गुरु पर लागू होते हैं।

गुरुपूजन : दैनिक स्नान के उपरांत पूजन के समय उपासक 'गुरुपरंपरासिद्धार्थं व्यासपूजां करिष्ये ।' का उच्चारण करता है और गुरु की पूजा शुरू करता है। एक धुला हुआ वस्त्र बिछाकर उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशाओं में चंदन से रेखाएँ खींची जाती हैं (प्रत्येक में 12 रेखाएँ)। यह महर्षि व्यास का आसन होती है। ब्रह्मा, परात्परशक्ति, व्यास, शुकदेव, गौड़पाद, गोविंदस्वामी और शंकराचार्य का आह्वान किया जाता है और उन्हें व्यासपीठ पर आमंत्रित किया जाता है। उन सभी को षोडशोपचार पूजा अर्पित की जाती है। इस दिन दीक्षा गुरु और माता-पिता की पूजा करने की प्रथा है।

यदि भारत को किसी एक शब्द से परिभाषित किया जा सकता है तो वह है गुरु-शिष्य परंपरा। गुरु की शरण में जाना ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। गुरु शिष्य के जीवन में अज्ञानता के अंधकार को नष्ट कर उसे परब्रह्म के शाश्वत प्रकाश से मिला देता है। संतों और विद्वानों ने सदियों से गुरु के गुणों का गुणगान किया है।
गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा होने के लिए क्या करना चाहिए ?

तीव्र मुमुुक्षुत्व अथवा गुरुप्राप्ति की तीव्र इच्छा तथा तडप, इस एक गुण के कारण गुरु प्राप्ति शीघ्र होती है एवं गुरु कृपा निरंतर रहती है। युवा अवस्था में किसी कन्या का अपने पर प्रेम हो इसलिए कोई युवक जैसे दिन रात उसी का ध्यान करके मैं क्या करूं, जिससे वह खुश हो इस दृष्टि से प्रयत्न करता है, उसी तरह गुरु मुझे अपना कहें, उनकी कृपा हो, इसके लिए दिन-रात इस बात का ध्यान रखकर मैं क्या करूं जिससे वे प्रसन्न होंगे, इस दृष्टि से प्रयत्न करना आवश्यक होता है ।कलियुग में पहले के तीन युगों जितनी गुरु प्राप्ति एवं गुरु कृपा होना कठिन नहीं है । यहां ध्यान में लेने वाला सूत्र यह है कि गुरु कृपा के सिवाय गुरु प्राप्ति नहीं होती। भविष्य काल में कौन अपना शिष्य बनेगा, यह गुरु को पहले ही ज्ञात होता है।

सर्वोत्तम गुुरुसेवा : अध्यात्म प्रसार

गुरु कार्य के लिए अपनी ओर से जो संभव है, वे सभी कार्य करना, यह सबसे सरल एवं महत्व का मार्ग है, यह सूत्र आगे आगे के उदाहरण से ध्यान में आएगा। समझिए एक कार्यक्रम की सिद्धता के लिए कोई सफाई कर रहा है, कोई भोजन बना रहा है, कोई बर्तन धो रहा है ,तो कोई सजावट कर रहा है। हम साफ सफाई के काम में लगे हैं एवं इस समय और एक व्यक्ति आया एवं वह भोजन बनाने वालों के साथ काम करने लगा, तो हमें उसके विषय में कुछ भी नहीं लगता ,परंतु वही यदि हमें साफ सफाई के कार्य में मदद करने लगे, तो वह अपना सा लगता है ।वैसे ही गुरु के विषय में भी है ।गुरु एवं संतों का एकमात्र कार्य अर्थात समाज में धर्म के विषय में एवं साधना के विषय में रुचि निर्माण करके सभी को साधना करने के लिए प्रवृत्त करना एवं अध्यात्म का प्रसार करना । हम वही काम यदि अपनी क्षमता अनुसार करने लगे, तो गुरु को लगता है कि यह मेरा है। उनका ऐसा लगना ही गुरु कृपा की शुरुआत है ।
एक बार एक गुरु ने अपने दो शिष्यों को थोड़े गेहूं दिए एवं बताया कि मेरे वापस आने तक ये गेहूं अच्छी तरह संभाल कर रखिएगा । एक वर्ष के उपरान्त वापस आने पर गुरु प्रथम शिष्य के पास गए एवं पूछा गेहूं अच्छे से रखे हैं ना ,उस पर उस शिष्य ने हां कहते हुए गेहूं रखा हुआ डिब्बा लाकर दिखलाया एवं कहा आपने दिए हुए गेहूं एकदम सुरक्षित रखे हुए हैं । उसके बाद गुरु दूसरे शिष्य के पास गए एवं उसे भी गेहूं के विषय में पूछा, तब शिष्य गुरु को पास के खेत पर ले गया । गुरु ने देखा कि चारों ओर गेहूं की बालियों से भरी हुई फसल लहलहा रही थी । यह देखकर गुरु को अतिशय आनंद हुआ। इसी तरह अपने गुरुओं द्वारा दिया हुआ नाम तथा ज्ञान हमें दूसरों को देकर बढ़ाना चाहिए।

गुरु का वास्तविक स्वरूप

१. शिष्य का विश्वास : गुरु विश्वास पर है। हमारे विश्वास पर गुरु की महत्ता अवलंबित तथा निर्भर है। गुरु आपके विश्वास पर भी (भरोसे पर ) है ।आपके विश्वास (भरोसे )में ही गुरु है।

भावार्थ : गुरु विश्वास पर है। हमारे विश्वास पर गुरु की महत्ता अवलंबित है। इसमें 'गुरु' यह शब्द बाह्य गुरुओं के संबंध में प्रयुक्त किया गया है । गुरु पर विश्वास हो तभी गुरु , गुरु रूप में कार्य कर सकते हैं ।गुरु आपके विश्वास पर भी है ।आपके विश्वास में ही गुरु है। इसमें गुरु, यह अंतर्यामी रहने वाले गुरु हैं।

२. गुरुतत्व एक ही : सभी गुरु यद्यपि स्थूल देेह से अलग हों, तब भी अंदर से एक ही होते हैं। जिस तरह गाय के किसी भी थन से समान ही शुद्ध एवं निर्मल दूध आता है ,उसी तरह प्रत्येक गुरु में गुरु तत्व एक ही होने के कारण उनकी ओर से आने वाली आनंद लहरियां समान ही होती हैं । समुद्र की लहरें जिस तरह किनारे की ओर आती हैं उसी तरह ब्रह्म/ ईश्वर ,इनकी लहरें अर्थात गुरु समाज की ओर आते हैं। सभी लहरों में पानी का स्वाद जिस तरह एक ही होता है, उसी तरह सभी गुरुओं का तत्व एक अर्थात ब्रह्म ही होता है। पानी की टंकी में छोटी, बड़ी अनेक टोंटियां होती हैं, तब भी प्रत्येक टोटी से टंकी का ही पानी आता है। बिजली के दिये अर्थात बल्ब कितने भी अलग-अलग आकार के हों, तब भी बहने वाली बिजली के कारण निर्माण होने वाला प्रकाश ही उसमें से बाहर आता है। उसी तरह गुरु बाह्यतः अलग-अलग दिखें, तो भी उनके अंदर का गुरु तत्व अर्थात ईश्वरीय तत्व एक ही होता है।

गुरु अर्थात स्थूल देह नहीं ।गुरुओं को सूक्ष्म देह (मन )एवं कारण देह (बुद्धि) न होने के कारण वे विश्व मन, विश्व बुद्धि से एक रूप होते हैं, अर्थात सभी गुरुओं का मन एवं बुद्धि ,यह विश्व मन एवं विश्व बुद्धि होने के कारण एक ही होते हैं।


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