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कृष्ण का भगिनी प्रेम

कृष्ण का भगिनी प्रेम

चितरंजन भारती,
भारतीय धर्म और संस्कृति में कृष्ण को सर्वव्यापकता मिली है। कश्मीर से कन्याकुमारी और कटक से अटक तक कृष्ण की विविध छवियाँ हैं। लेकिन उनमें उनके मनोहारी छवि के रूप ही सभी को प्रिय हैं। भारतीय भौगोलिक क्षेत्रों में हर जगह पर हमें कृष्ण से संबंधित मिथक, किंवदंतियाँ और कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। और हो भी क्यों नहीं, कृष्ण ने कारागार में जन्म लिया, छोटे से अनाम गाँव वृंदावन में बाल्यावस्था व्यतीत किया। कृष्ण के कारनामों के वजह से राक्षस ही नहीं, इंद्र भी कुपित हुए। मगर कृष्ण की सूझबूझ से संकट समाप्त भी होता रहा। कृष्ण ने गोपालक के रूप में पशुधन का महत्व हमें समझाया। तो वृंदावन की कुंज गलियों और वनों में विचरते हुए वृक्षों की महत्ता भी समझाई। गोवर्धन पर्वत के रूप में पहाड़ों की पवित्रता दिखाई, तो नदियों को कैसे साफ रखा जाए, इसके लिए यमुना नदी में घुसपैठ कर बैठे कालिया-नाग का दर्प चूर्ण कर उसे भागने पर मजबूर किया।
प्रेम का प्रतीक हैं – कृष्ण। यह राधा एवं गोपियों संग जग-जाहिर है। और अधिकांशतः हम यही प्रेम के प्रतीक को देखते आये हैं। कृष्ण का एक भव्य रूप शिष्य रूप में है, जब वह सांदिपनी मुनि के आश्रम में हैं। वहीं उनका एक और प्रेम का प्रतीक मित्र रूप है, जो सुदामा के साथ हमारे सामने है। वैसे मित्र तो वह अर्जुन के भी हैं। मगर वह वहाँ उसके सहयोगी और मार्गदर्शक भी हैं। तभी तो भागवद् गीता इनके माध्यम से हमारे सामने है।
मथुरावासी, यानी शहरवासी होने पर भी चैन नहीं। बड़ी मुश्किल से तो वह बड़े-बड़े योद्धाओं को किनारे कर मथुरा के राजा कंस का वध किया था। मगर प्रतिशोध की ज्वाला से जलते, मगध जैसे विशाल साम्राज्य का स्वामी जरासंध एक छोटे से नगर पर आक्रमण करता रहे, तो कोई चैन से कैसे रह सकता है? उन्हें स्थान परिवर्तन ही उपयुक्त लगा, तो मथुरा से हजारों मील दूर समुद्र के किनारे द्वारका चले आये, ताकि सामान्य जनों का रक्तपात न हो। अंततः उन्होनें रणछोड़ कहलाना मंजूर किया।
आगे की कहानियों में तो उनके सामने पूरा महाभारत है। वहाँ वह नीतिज्ञ हैं, कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ भी हैं। जाहिर सी बात है कि पांडव धर्म के साथ हैं, तो उनके पास प्रेम के प्रतीक कृष्ण हैं। कृष्ण का कुरूक्षेत्र में जो गीता का उपदेश हुआ, वह भारतीय संस्कृति और दर्शन की निधि बन गई। ऐसी बात नहीं कि कौरवों में वह मान्य नहीं। जहाँ भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य जैसे पुरखे-पुरनिया कृष्ण को पूजता हो, उसकी अवहेलना कौन कर सकता है? धृतराष्ट्र ने अवहेलना की, तो वंश तो नष्ट हुआ ही, जो कलंक लगा, वह अबतक मिटाये नहीं मिटता है।
एक और व्यक्ति शिशुपाल ने कृष्ण के प्रेम को चुनौती दी थी। युधिष्ठिर द्वारा आयोजित इंद्रप्रस्थ में आयोजित राजसूय यज्ञ में प्रथम पूज्य के रूप में कृष्ण की आरती की जाने लगी, तो शिशुपाल अपना आपा खो बैठा। सौ गलतियों के उपरांत भी जब बात आगे बढ़ी, तो कृष्ण ने उसे दंडित करना जरूरी समझा। अब पूजा-पाठ में हथियार लेकर कौन जाता है! सो कृष्ण ने उसी आरती की थाली को अपनी उंगलियों पर नचा, चक्र रूप दिया और शिशुपाल की गर्दन काट दी।
मगर इस क्रम में कृष्ण की उँगली भी चक्र से कट गई थी। रक्त का प्रवाह देखकर महारानी पांचाली ने अपनी साड़ी फाड़कर उसके टुकड़े से कृष्ण की उँगली के रक्त-स्राव को रोक दिया। कृष्ण हतप्रभ थे। द्रौपदी से कृष्ण का कोई पारिवारिक संबंध नहीं है। फिर भी कृष्ण उसे अपनी बहन के रूप में देखते हैं। हस्तिनापुर की पुत्रवधू और इंद्रप्रस्थ की महारानी थी पांचाली। पाँच-पाँच महायोद्धा पति जिसके हों, उसके सौभाग्य का क्या कहना! लेकिन वहीं जब वस्त्रहरण होने लगा, तो कोई आगे नहीं आया। और ऐसे दुर्भाग्यजनक समय में कृष्ण ने अपनी बहन द्रौपदी की लाज बचाकर अपना कर्तव्य निर्वाह किया।
कृष्ण की लीलाएँ अथवा कारनामे हमें अनेक संदेश देते हैं। वैसे उनका मूल संदेश तो प्रेम का ही है। अनेक जगहों पर उनके प्रेम का प्रकटीकरण हुआ है। राधा और गोपियों के साथ उनका प्रेम जग-जाहिर है। गउओं के प्रति प्रेम हम देखते हैं। प्रकृति के प्रति प्रेम के तो वह साक्षात् स्वरूप हैं ही। सभी रिश्तों के प्रति उन्होंने अपने प्रेम को उच्चतम स्थिति प्रदान किया है। इसी क्रम में वह अपनी बहन से भी प्रेम दिखाते अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं।
कृष्ण की अपनी बहन एकांगी बताई जाती है, जो अपने एकांतवास के कारण विस्मृत है। यशोदा के गर्भ से उत्पन्न योगमाया भी उनकी बहन ही हुई, मगर कंस के कारण वह जन्म के साथ ही अंतर्धान हो गई। वसुदेव की दरअसल दो पत्नियाँ थीं। दूसरी पत्नी देवकी को हम जानते हैं, जो कंस की बहन थी। पहली पत्नी रोहिणी हैं, जिनसे बलराम और सुभद्रा का जन्म हुआ था। कंस ने जब वसुदेव-देवकी को पकड़ कर कारागार में डाला, तो रोहिणी अपने बच्चों के साथ नंदजी के पास शरण ले ली थी। और इस प्रकार बलराम और सुभद्रा, कृष्ण के चचेरे भाई-बहन हुए।
बहन सुभद्रा का विशेष ख्याल कृष्ण रखते हैं। वह अर्जुन से प्रेम करती है। मगर बलराम उसका विवाह दुर्योधन से करना चाहते हैं। कृष्ण स्वाभाविक प्रेम के पक्षधर हैं। तभी तो “सुभद्रा स्वयंवर” के वक्त कृष्ण सुभद्रा को अर्जुन के साथ पलायित करने का सुझाव देते हैं। सुभद्रा जानती है कि कृष्ण के आगे क्रोधी बलराम कुछ कर नहीं पायेंगे। होता भी यही है। तो यहाँ हम कृष्ण के भगिनी-प्रेम का दिग्दर्शन करते हैं।
कृष्ण के इस भगिनी-प्रेम का वर्णन विभिन्न पुराणों यथा- श्रीमद्भागवत पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, ब्रम्ह पुराण और महाभारत में भी मिलता है। वह इस रूप में कि सुभद्रा नगर भ्रमण की इच्छा रखती हैं। दुनिया भर के ताम-झाम में व्यस्त कृष्ण इसके लिए समय निकालते हैं। इसके लिए विशेष रथों का निर्माण होता है। और कृष्ण अपने अग्रज बलराम और बहन सुभद्रा के साथ अलग-अलग रथों में बैठकर नगर भ्रमण को निकलते हैं।
इस रथ-यात्रा का वर्णन हमें कई जगहों में मिलता है। मगर इसमें सर्वाधिक लोकप्रिय पुरी की रथ-यात्रा है। उड़ीसा के पुरी नामक नगर को पुरूषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र आदि माना गया है। ऐसी किंवदंती है कि उत्कल के राजा को समुद्र से लकड़ी का एक विशाल तख्ता मिला। उसे स्वप्न हुआ कि वह कृष्ण सहित बलराम और सुभद्रा की प्रतिमा का निर्माण कराये। संयोग से विश्वकर्मा स्वयं वृद्ध शिल्पी के रूप में उपस्थित हुए और प्रतिमा निर्माण की इच्छा जताई। राजा ने सहर्ष उसकी अनुमति दे दी। वृद्ध शिल्पी की शर्त यही थी कि वह दरवाजा बंद कर अपना काम करता रहेगा। जबतक काम पूरा नहीं हो जाता, उसे कोई व्यवधान नहीं हो।
कई दिनों तक काम चलता रहा। रानी को आशंका हुई कि एक वृद्ध अशक्त व्यक्ति बिना कुछ खाये-पिये काम कैसे कर सकता है! सो वह उसके कक्ष में चली गई। वहाँ कोई नहीं था। कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की अधूरी प्रतिमाएँ भर वहाँ थीं।
उत्कल राज को पुनः स्वप्न आया कि वह उन अधूरी प्रतिमाओं में ही प्राण-प्रतिष्ठा कर विधिवत् पूजा-आराधना की व्यवस्था करे। और तब से यहाँ पुरी में जगन्नाथ पूजा का आरंभ माना जाता है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि जगन्नाथ को ही लोक-परंपरा के अनुसार राधा-कृष्ण का समन्वित रूप माना जाता है।
नारद पुराण के अनुसार कृष्ण का पुरी स्थित वर्तमान स्वरूप का एक कारण है। वह यह कि एक बार कृष्ण की रानियों रूक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती आदि के मन में यह ख्याल आया कि कृष्ण आखिर राधामय क्यों हैं! कृष्ण आखिर राधा को क्यों नहीं भूल पाते! प्रश्न रोहिणी से है, जो द्वारका की सबसे बुजुर्ग महिला और जानकार हैं। रोहिणी उन्हें कृष्ण के रास-लीला की जानकारी देती हैं, जिसे विस्तार से सुनने के लिए रानियाँ उत्सुक हैं। रोहिणी इस शर्त के अनुसार रास-लीला की जानकारी देना मंजूर करती हैं कि इस बीच कृष्ण और बलराम नहीं आ जायें। अब राजा को ही कौन कहीं से आने-जाने के लिए रोकने-टोकने का साहस करे? सो इस कार्य के लिए सुभद्रा तैयार होती हैं।
रास-लीला की कथा जब आरंभ हुआ, तो इस बीच कृष्ण और बलराम आ ही गये। सुभद्रा के कारण वह अंदर आ नहीं सके। मगर दरवाजे के बाहर से ही कृष्ण, बलराम और सुभद्रा ने भी जो यह कथा सुनी, तो भाव-विह्वल होकर उनके अंग-प्रत्यंग विगलित होने लगे। और इस प्रकार इन तीनों का जो स्वरूप उभरा, वही वर्तमान में पुरी की प्रतिमाएँ हैं। कृष्ण यहाँ अपने भाई बलराम तथा बहन सुभद्रा के साथ उपस्थित होकर जैसे यही संदेश देते हैं कि भाई-बहनों का भी प्रेम अटल और अलौकिक है।
आमतौर पर तीर्थों में प्रसाद चढ़ते हैं, जो भोग-पूजा के उपरांत भक्तों में वितरित किया जाता है। लेकिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जो प्रसाद चढ़ता है, उसे महाप्रसाद कहते हैं। बताते हैं कि दक्षिण भारत के वल्लभाचार्य़ यहाँ दर्शन को आये। उन्हें एकादशी को यह प्रसाद मिला था। वल्लभाचार्य उस प्रसाद को हाथ में रखे-रखे ही जगन्नाथ का स्तवन करते रह गये। अगले दिन यानी द्वादशी को उन्होंने स्तवन की समाप्ति के उपरांत प्रसाद ग्रहण किया। नारियल, धान के लावा या खोई, गजामूँग आदि से निर्मित इस प्रसाद को तभी से महाप्रसाद कहा जाने लगा।
तो बात हो रही थी यहाँ कृष्ण के भगिनी प्रेम की। कृष्ण ने सुभद्रा का मान रखते हुए, विशेष रथ तैयार करवाये। और भाई बलराम को भी साथ ले आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष के द्वितिया तिथि को चल पड़े। द्वारका की जनता को मालूम पड़ा, तो वह सड़क पर उमड़ पड़ी। और इस प्रकार यह यात्रा और भव्य बन गया। चूँकि भीड़ है, तो स्वाभाविक ही गति धीमी हो गई। अपने इस यात्रा के क्रम में तीनों भाई-बहन अपनी मौसी के यहाँ गुंडिचा में पधारे और वहीं सात दिनों का प्रवास भी किया। फिलहाल तो यह रथ-यात्रा पुरी के मंदिर से आरंभ होकर गुंडिचा स्थित मंदिर तक जाती है।
मतलब एक सप्ताह तक सारे पूजा-पाठ, कर्म-कांड मुख्य जगन्नाथ मंदिर में न होकर इसी मंदिर में होते हैं। इसके बाद आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष के एकादशी को वापसी यात्रा आरंभ होती है। स्वाभाविक ही यह यात्रा उससे भी भव्य होती है। अब मौसी के यहाँ से तीनों भाई-बहन यानी कृष्ण, बलराम और सुभद्रा मौसी के घर से मिले राजसी पोषाक से सुशोभित होते हैं। सबसे आगे बलराम का तालध्वज रथ रहता है, जो 45 फीट ऊँचा होता है और जिसमें 14 पहिये होते हैं। उसके पीछे बहन सुभद्रा का 44 फीट ऊँचा पद्मध्वज रथ रहता है, जिसमें 12 पहिये होते हैं। इसके पीछे कृष्ण का नंदीघोष नाम का रथ होता है, जो 46 फीट ऊँचा होता है और जिसमें 16 पहिये होते हैं। यह यात्रा अंततः एकादशी की रात को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में वापस आकर समाप्त हो जाती है।
मंदिर शैली में निर्मित इन भारी-भरकम रथों को मोटे-मोटे रस्सों के सहारे हजारों भक्तगण ही खींचकर आगे बढ़ाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इन रथों को स्पर्श करने या खींचने से अमोघ वरदान मिलता है। श्रद्धा के इन चरम सोपानों और भजन-कीर्तन के बीच जगन्नाथ के जयकारों के साथ रथ आगे बढ़ता है। पुरी से आगे चलकर रथ-यात्रा का यह विधान दक्षिण भारत में भी गया, तो वहाँ भी रथ-यात्रा के आयोजन होने लगे। पूर्वोत्तर भारत में यूँ तो कृष्ण-भक्ति का श्रेय 14वीं शताब्दी के भक्त कवि शंकरदेव को है। विविध रूपों में यहाँ कृष्ण पूज्य है। आगे चलकर पूर्वोत्तर में असम, मणिपुर, त्रिपुरा आदि में इस रथ-यात्रा के आयोजन राजकीय स्तर पर किये जाने लगे, तो इसकी लोकप्रियता बढ़ी। वर्तमान समय में यहाँ की जनता इसे अपने स्तर पर भव्य ढंग से आयोजित करती है।
इस्कॉन मंदिर आंदोलन ने भी इस रथ-यात्रा को भव्य रूप दिया है। वर्तमान में तो यह रथ-यात्रा संपूर्ण भारत में एक उत्सव का रूप धारण कर चुका है। यहाँ ध्यातव्य यही है कि कृष्ण ने सभी का ख्याल रखा। सभी संबंधों को सम्मान और प्रेम दिया। और यह रथ-यात्रा उनके बहन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है। रथ-यात्रा के बहाने हम अपने बहनों को यही प्रेम और विश्वास दे सकें, यही इस रथ-यात्रा का संदेश है। पांचाली के प्रति कृष्ण ने अपना जो अनन्य प्रेम दिखलाया, वह अन्यतम तो है ही। यह सीख हमारे लिए भी कि बहनों की मान-मर्यादा और शील की हमें कद्र ही नहीं रक्षा भी करनी है। विपत्ति के समय वनवासी पांडवों के पास दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ आ धमके और भोजन कराने का हुक्म ऐसे समय दिया, जब द्रौपदी अक्षय पात्र में भोजन कर चुकी थी। ऐसे संकट में कृष्ण उपस्थित होकर उसे इस संकट से उबारते हैं। सीधा संदेश यही है कि भाई को अपने असहाय, लाचार, निर्धन बहनों की मदद करनी है। रक्षा-बंधन के बहाने, प्रेम के प्रतीक कृष्ण यहाँ इसी भगिनी-प्रेम का आवाहन करते हैं, जिसका पुनःप्रतिष्ठापन समय की माँग है।
चितरंजन भारती,
फ्लैट सं0- 405, लक्ष्मीनिवास अपार्टमेंटजगतनारायण रोड, कदमकुँआ, पटना-800 003
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