दिल

दिल

तूने कहा मरघट को दिल नहीं होता
पर कभी मेरे दिल में तो झांककर देखो।
जब देखता हूं अनगिनत असंख्य लाशें
बहने लगती हैं अविरल आंसू की धारा
जिससे बनती है नदी, पोखर और तालाब ।

जिसे तू अपने आंगन से निकाल लाया है
दिल कठोर कर उसे अपनी बाहों में सुलाता हूं
इस मौत के मंजर को तूने सदैव देखा है
गंदी घिनौनी आंखों से, जिसपर चढ़ी थी जातिवाद ,
साम्प्रदायवाद की काली पट्टी ।


जब तुम ढूंढ रहे थे मौतों का कारण
और मैं! उन्हें अपने आगोश में लेकर
पवित्र निर्मल जल में स्नान करा रहा था
तू उन्हें अग्नि के हवाले कर चले गये थे
और मैं भी उस तपीश में जल रहा था।


जितेन्द्र नाथ मिश्र
कदम कुआं, पटना ।
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