विश्व की पहली भूगोल पुस्तक - श्री विष्णु पुराण

विश्व की पहली भूगोल पुस्तक - श्री विष्णु पुराण

(World's first Geography Book - Shri Vishnu Puran)

जी हाँ! ठीक शीर्षक पढ़ा आपने, पृथ्वी का संपूर्ण लिखित वर्णन सबसे पहले विष्णु पुराण में देखने को मिलता है... विष्णु पुराण के रचियता है... महान ऋषि पाराशर...

ऋषि पाराशर महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा एवं ग्रंथकार थे... राक्षस द्वारा मारे गए वसिष्ठ के पुत्र शक्ति से इनका जन्म हुआ। बड़े होने पर माता अदृश्यंती से पिता की मृत्यु की बात ज्ञात होने पर राक्षसों के नाश के निमित्त इन्होंने राक्षस सत्र नामक यज्ञ शुरू किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस मारे जाने लगे। यह देखकर पुलस्त्य आदि ऋषियों ने उपदेश देकर इनकी राक्षसों के विनाश से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया। इसके पश्चात् इन्होने विष्णु पुराण की रचना की...

यह पुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है।

यहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-

“त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया।
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रुष्टुमर्हसि शङ्कर।
योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्।
मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि।
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः।
वन्दति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर॥"

इस पुराण में इस समय सात हजार श्लोक उपलब्ध हैं। कई ग्रन्थों में इसकी श्लोक संख्या तेईस हजार बताई जाती है। विष्णु पुराण में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

ये निम्नलिखित भागों मे वर्णित है-
१. पूर्व भाग-प्रथम अंश
२. पूर्व भाग-द्वितीय अंश
३. पूर्व भाग-तीसरा अंश
४. पूर्व भाग-चतुर्थ अंश
५. पूर्व भाग-पंचम अंश
६. पूर्व भाग-छठा अंश
७. उत्तरभाग

यहाँ पर मैं सारे भागों का संछिप्त वर्णन भी नहीं करना चाहता... क्योकिं लेख के अत्याधिक लम्बे हो जाने की सम्भावना है ... परन्तु लेख की विषय वस्तु के हिसाब से इसके "पूर्व भाग-द्वितीय अंश" का परिचय देना चाहूँगा .... इस भाग में ऋषि पाराशर ने पृथ्वी के द्वीपों, महाद्वीपों, समुद्रों, पर्वतों, व धरती के समस्त भूभाग का विस्तृत वर्णन किया है...

ये वर्णन विष्णु पुराण में ऋषि पाराशर जी श्री मैत्रेय ऋषि से कर रहे हैं उनके अनुसार इसका वर्णन सहस्त्र वर्षों में भी नहीं हो सकता है। यह केवल अति संक्षेप वर्णन है। हम इससे इसकी महानता तथा व्यापकता का अंदाजा लगा सकते हैं...

जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।

ऋषि पाराशर के अनुसार ये पृथ्वी सात महाद्वीपों में बंटी हुई है... (आधुनिक समय में भी ये ७ Continents में विभाजित है यानि - Asia, Africa, North America, South America, Antarctica, Europe, and Australia)

ऋषि पाराशर के अनुसार इन महाद्वीपों के नाम हैं -
१. जम्बूद्वीप
२. प्लक्षद्वीप
३. शाल्मलद्वीप
४. कुशद्वीप
५. क्रौंचद्वीप
६. शाकद्वीप
७. पुष्करद्वीप

ये सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी, नाना प्रकार के द्रव्यों और मीठे जल के समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं, और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। जम्बुद्वीप इन सब के मध्य में स्थित है।
इनमे से जम्बुद्वीप का सबसे विस्तृत वर्णन मिलता है... इसी में हमारा भारतवर्ष स्थित है...

सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है। इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे कई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।

सुमेरु के दक्षिण में हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्ष पर्वत हैं, जो भिन्न भिन्न वर्षों का भाग करते हैं। सुमेरु के उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं। इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं। हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं। हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला वर्ष भारतवर्ष कहलाता है, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। उत्तरकुरुवर्ष द्वीपमण्डल की सीमा पार होने के कारण भारतवर्ष के समान धनुषाकार है।

इन सबों का विस्तार नौ हजार योजन प्रतिवर्ष है। इन सब के मध्य में इलावृतवर्ष है, जो कि सुमेरु पर्वत के चारों ओर नौ हजार योजन फ़ैला हुआ है। एवं इसके चारों ओर चार पर्वत हैं, जो कि ईश्वरीकृत कीलियां हैं, जो कि सुमेरु को धारण करती हैं,

ये सभी पर्वत इस प्रकार से हैं:-

पूर्व में मंदराचल
दक्षिण में गंधमादन
पश्चिम में विपुल
उत्तर में सुपार्श्व

ये सभी दस दस हजार योजन ऊंचे हैं। इन पर्वतों पर ध्वजाओं समान क्रमश कदम्ब, जम्बु, पीपल और वट वृक्ष हैं। इनमें जम्बु वृक्ष सबसे बड़ा होने के कारण इस द्वीप का नाम जम्बुद्वीप पड़ा है। यहाँ से जम्बु नद नामक नदी बहती है। उसका जल का पान करने से बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता। उसके मिनारे की मृत्तिका (मिट्टी) रस से मिल जाने के कारण सूखने पर जम्बुनद नामक सुवर्ण बनकर सिद्धपुरुषों का आभूषण बनती है।

मेरु पर्वत के पूर्व में भद्राश्ववर्ष है, और पश्चिम में केतुमालवर्ष है। इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है। इस प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ , दक्षिण की ओर गन्धमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नन्दन नामक वन हैं। तथा सदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर हैं।

मेरु के पूर्व में

शीताम्भ,
कुमुद,
कुररी,
माल्यवान,
वैवंक आदि पर्वत हैं।

मेरु के दक्षिण में

त्रिकूट,
शिशिर,
पतंग,
रुचक
और निषाद आदि पर्वत हैं।

मेरु के उत्तर में

शंखकूट,
ऋषभ,
हंस,
नाग
और कालंज पर्वत हैं।

समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। इसमें सात कुलपर्वत हैं: महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र ।

भारतवर्ष के नौ भाग हैं:

इन्द्रद्वीप,
कसेरु,
ताम्रपर्ण,
गभस्तिमान,
नागद्वीप,
सौम्य,
गन्धर्व
और वारुण, तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवां है।

यह द्वीप उत्तर से दक्षिण तक सहस्र योजन है। यहाँ चारों वर्णों के लोग मध्य में रहते हैं। शतद्रू और चंद्रभागा आदि नदियां हिमालय से, वेद और स्मृति आदि पारियात्र से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचल से, तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्ष्यगिरि से निकली हैं। गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, सह्य पर्वत से; कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रगिरि से तथा ऋषिकुल्या एवंकुमारी आदि नदियां शुक्तिमान पर्वत से निकलीं हैं। इनकी और सहस्रों शाखाएं और उपनदियां हैं।


इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, मध्याअदि देशों के; पूर्व देश और कामरूप के; पुण्ड्र, कलिंग, मगध और दक्षिणात्य लोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्र निवासी; सौवीर, सन्धव, हूण; शाल्व, कोशल देश के निवासी तथा मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते हैं। भारतवर्ष में ही चारों युग हैं, अन्यत्र कहीं नहीं। इस जम्बूद्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है।


प्लक्षद्वीप का वर्णन -


प्लक्षद्वीप का विस्तार जम्बूद्वीप से दुगुना है। यहां बीच में एक विशाल प्लक्ष वृक्ष लगा हुआ है। यहां के स्वामि मेधातिथि के सात पुत्र हुए हैं। ये थे:
शान्तहय,
शिशिर,
सुखोदय,
आनंद,
शिव,
क्षेमक,
ध्रुव ।


यहां इस द्वीप के भी भारतवर्ष की भांति ही सात पुत्रों में सात भाग बांटे गये, जो उन्हीं के नामों पर रखे गये थे: शान्तहयवर्ष, इत्यादि।


इनकी मर्यादा निश्चित करने वाले सात पर्वत हैं:


गोमेद,
चंद्र,
नारद,
दुन्दुभि,
सोमक,
सुमना
और वैभ्राज।


इन वर्षों की सात ही समुद्रगामिनी नदियां हैं अनुतप्ता, शिखि, विपाशा, त्रिदिवा, अक्लमा, अमृता और सुकृता। इनके अलावा सहस्रों छोटे छोटे पर्वत और नदियां हैं। इन लोगों में ना तो वृद्धि ना ही ह्रास होता है। सदा त्रेतायुग समान रहता है। यहां चार जातियां आर्यक, कुरुर, विदिश्य और भावी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। यहीं जम्बू वृक्ष के परिमाण वाला एक प्लक्ष (पाकड़) वृक्ष है। इसी के ऊपर इस द्वीप का नाम पड़ा है।


प्लक्षद्वीप अपने ही परिमाण वाले इक्षुरस के सागर से घिरा हुआ है।


शाल्मल द्वीप का वर्णन


इस द्वीप के स्वामि वीरवर वपुष्मान थे। इनके सात पुत्रों :
श्वेत,
हरित,
जीमूत,
रोहित,
वैद्युत,
मानस
और सुप्रभ के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। इक्षुरस सागर अपने से दूने विस्तार वाले शाल्मल द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


इसमें महाद्वीप में
कुमुद,
उन्नत,
बलाहक,
द्रोणाचल,
कंक,
महिष,
ककुद्मान नामक सात पर्वत हैं।


इस महाद्वीप में -
योनि,
तोया,
वितृष्णा,
चंद्रा,
विमुक्ता,
विमोचनी
एवं निवृत्ति नामक सात नदियां हैं।


यहाँ -
श्वेत,
हरित,
जीमूत,
रोहित,
वैद्युत,
मानस
और सुप्रभ नामक सात वर्ष हैं।


यहां -
कपिल,
अरुण,
पीत
और कृष्ण नामक चार वर्ण हैं।


यहां शाल्मल (सेमल) का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने से दुगुने विस्तार वाले सुरासमुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


कुश द्वीप का वर्णन


इस द्वीप के स्वामि वीरवर ज्योतिष्मान थे।


इनके सात पुत्रों :
उद्भिद,
वेणुमान,
वैरथ,
लम्बन,
धृति,
प्रभाकर,
कपिल


इनके नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। मदिरा सागर अपने से दूने विस्तार वाले कुश द्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत -
विद्रुम,
हेमशौल,
द्युतिमान,
पुष्पवान,
कुशेशय,
हरि
और मन्दराचल नामक सात पर्वत हैं।


नदियां -


धूतपापा,
शिवा,
पवित्रा,
सम्मति,
विद्युत,
अम्भा
और मही नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष -


उद्भिद,
वेणुमान,
वैरथ,
लम्बन,
धृति,
प्रभाकर,
कपिल नामक सात वर्ष हैं।


वर्ण -


दमी,
शुष्मी,
स्नेह
और मन्देह नामक चार वर्ण हैं।


यहां कुश का अति विशाल वृक्ष है। यह महाद्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


क्रौंच द्वीप का वर्णन -


इस द्वीप के स्वामि वीरवर द्युतिमान थे।


इनके सात पुत्रों :


कुशल,
मन्दग,
उष्ण,
पीवर,
अन्धकारक,
मुनि
और दुन्दुभि के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं। यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत -


क्रौंच,
वामन,
अन्धकारक,
घोड़ी के मुख समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत,
दिवावृत,
पुण्डरीकवान,
महापर्वत
दुन्दुभि नामक सात पर्वत हैं।


नदियां -


गौरी,
कुमुद्वती,
सन्ध्या,
रात्रि,
मनिजवा,
क्षांति
और पुण्डरीका नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष -


कुशल,
मन्दग,
उष्ण,
पीवर,
अन्धकारक,
मुनि और
दुन्दुभि ।


वर्ण -


पुष्कर,
पुष्कल,
धन्य
और तिष्य नामक चार वर्ण हैं।


यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले शाक द्वीप से घिरा है।


शाकद्वीप का वर्णन -


इस द्वीप के स्वामि भव्य वीरवर थे।


इनके सात पुत्रों :


जलद,
कुमार,
सुकुमार,
मरीचक,
कुसुमोद,
मौदाकि
और महाद्रुम के नाम संज्ञानुसार ही इसके सात भागों के नाम हैं।


यहां भी सात पर्वत, सात मुख्य नदियां और सात ही वर्ष हैं।


पर्वत -


उदयाचल,
जलाधार,
रैवतक,
श्याम,
अस्ताचल,
आम्बिकेय
और अतिसुरम्य गिरिराज केसरी नामक सात पर्वत हैं।


नदियां -


सुमुमरी,
कुमारी,
नलिनी,
धेनुका,
इक्षु,
वेणुका
और गभस्ती नामक सात नदियां हैं।


सात वर्ष -


जलद,
कुमार,
सुकुमार,
मरीचक,
कुसुमोद,
मौदाकि
और महाद्रुम ।


वर्ण -


वंग,
मागध,
मानस
और मंगद नामक चार वर्ण हैं।


यहां अति महान शाक वृक्ष है, जिसके वायु के स्पर्श करने से हृदय में परम आह्लाद उत्पन्न होता है। यह द्वीप अपने ही बराबर के द्रव्य से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह सागर अपने से दुगुने विस्तार वाले पुष्कर द्वीप से घिरा है।


पुष्करद्वीप का वर्णन -


इस द्वीप के स्वामि सवन थे।


इनके दो पुत्र थे:


महावीर
और धातकि।


यहां एक ही पर्वत और दो ही वर्ष हैं।


पर्वत -


मानसोत्तर नामक एक ही वर्ष पर्वत है। यह वर्ष के मध्य में स्थित है । यह पचास हजार योजन ऊंचा और इतना ही सब ओर से गोलाकार फ़ैला हुआ है। इससे दोनों वर्ष विभक्त होते हैं, और वलयाकार ही रहते हैं।


नदियां -
यहां कोई नदियां या छोटे पर्वत नहीं हैं।


वर्ष -


महवीर खण्ड
और धातकि खण्ड।


महावीरखण्ड वर्ष पर्वत के बाहर की ओर है, और बीच में धातकिवर्ष है ।


वर्ण -


वंग,
मागध,
मानस
और मंगद नामक चार वर्ण हैं।


यहां अति महान न्यग्रोध (वट) वृक्ष है, जो ब्रह्मा जी का निवासस्थान है यह द्वीप अपने ही बराबर के मीठे पानी से भरे समुद्र से चारों ओर से घिरा हुआ है।


समुद्रो का वर्णन -


यह सभी सागर सदा समान जल राशि से भरे रहते हैं, इनमें कभी कम या अधिक नही होता। हां चंद्रमा की कलाओं के साथ साथ जल बढ़्ता या घटता है। (ज्वार-भाटा) यह जल वृद्धि और क्षय 510 अंगुल तक देखे गये हैं।


पुष्कर द्वीप को घेरे मीठे जल के सागर के पार उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिल्खायी देती है। वहां दस सहस्र योजन वाले लोक-आलोक पर्वत हैं। यह पर्वत ऊंचाई में भी उतने ही सहस्र योजन है। उसके आगे पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए घोर अन्धकार छाया हुआ है। यह अन्धकार चारों ओर से ब्रह्माण्ड कटाह से आवृत्त है। (अन्तरिक्ष) अण्ड-कटाह सहित सभी द्वीपों को मिलाकर समस्त भू-मण्डल का परिमाण पचास करोड़ योजन है। (सम्पूर्ण व्यास)


आधुनिक नामों की दृष्टी से विष्णु पुराण का सन्दर्भ देंखे तो... हमें कई समानताएं सिर्फ विश्व का नक्शा देखने भर से मिल जायेंगी...
१. विष्णु पुराण में पारसीक - ईरान को कहा गया है,
२. गांधार वर्तमान अफगानिस्तान था,
३. महामेरु की सीमा चीन तथा रशिया को घेरे है.
४. निषध को आज अलास्का कहा जाता है.
५. प्लाक्ष्द्वीप को आज यूरोप के नाम से जाना जाता है.
६. हरिवर्ष की सीमा आज के जापान को घेरे थी.
७. उत्तरा कुरव की स्तिथि को देंखे तो ये फ़िनलैंड प्रतीत होता है.
इसी प्रकार विष्णु पुराण को पढ़कर विश्व का एक सनातनी मानचित्र तैयार किया जा सकता है... ये थी हमारे ऋषियों की महानता। -


अंत में एक बात और - महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था।


महाभारत में कहा गया है कि - यह पृथ्वी चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल (पत्तों) के रुप में दिखायी देती है-


उक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था-


"सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।


"अर्थात हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है।"


अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से शत प्रतिशत समानता दिखाता है।
✍🏻साभार


ऋग्वेद_में_भूगोल


आज हमें बताया जाता है कि सबसे पहले आर्यभट ने कहा था कि पृथ्वी गोल है...
लेकिन हमें तो बचपन में यह पढ़ाया गया था कि सबसे पहले कॉपरनिकस ने कहा था कि पृथ्वी गोल है।


और तब कोपरनिकस के साथ ईसाइयों ने बड़ा ही अमानवीय व्यवहार किया था। क्योंकि बाइबिल के जेनेसिस के अध्याय में लिखा था कि पृथ्वी चपटी है।


हमारे अंदर जब थोड़ी जागरूकता आई तो हम कॉपरनिकस से थोड़ा पीछे गए।तब जाकर हमें पता चला कि आर्यभट ने हमें पहले ही बताया था कि पृथ्वी गोल है।


परंतु ऋग्वेद 1/33/8 में कहा गया है -
चक्राणास: परिणहं पृथिव्या।
यानी पृथ्वी चक्र के जैसी गोल है।
पृथ्वी से जुड़ा जो भी विषय हम पढ़ते हैं - उस विषय का नाम है - 'भूगोल'.(भू = पृथ्वी और गोल = वृत्ताकार) यह नाम ही साबित करता है कि पृथ्वी गोल है। फिर हमें वैदिक ऋषियों ने बताया कि -
माता भूमि: पुत्रोस्हं पृथिव्या:।
यानी हम पृथ्वी की संतानें हैं,
अर्थात पृथ्वी हमारी माँ है।
पृथ्वी माता कैसे हैं?
माँ के गर्भ में हम एक झिल्ली में होते हैं, ताकि माता के शरीर के अंदर के बैक्टीरिया हमें नुकसान नहीं पहुँचा सकें। माँ के गर्भ में इस झिल्ली द्वारा ही हमें सुरक्षित रखा जाता है। अन्यथा हम वहीं सड़ - गल जाते...और कभी जन्म नहीं ले पाते। ठीक इसी प्रकार... पृथ्वी भी एक झिल्ली में सुरक्षित है। इसे हम 'ओजोन परत' कहते हैं। यह परत हमें सूर्य के हानिकारक अल्ट्रावॉइलेट विकिरणों से सुरक्षित रखती है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नासा ने ओज़ोन परत का चित्र लिया है। यह सुनहरे रंग की दिखती है।


ऐसा ही उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है। वहाँ पृथ्वी को 'हिरण्यगर्भा' कहा गया है। 'हिरण्य' अर्थात 'हिरन के जैसा' या सुनहरे रंग का। मतलब, जिस जिस तथ्य की जानकारी आधुनिक विज्ञान को आज पता चली, उसकी जानकारी हमारे ऋषियों को लाखों साल पहले प्राप्त हो चुकी थी। इस जानकारी का इतनी सूक्ष्मता से वर्णन हमारे ऋग्वेद में मिलता है।


आज हम जानते हैं कि पृथ्वी पश्चिम से पूरब की ओर घूम रही है। इसलिए सूर्योदय हमेशा पूरब में होता है। इस सम्बंध में ऋग्वेद (7/992) में ऋषि कहते हैं - कि
बूढ़ी महिला की तरह झुकी हुई पृथ्वी पूरब की ओर जा रही है। ऋग्वेद हमें यह भी बताता है कि
पृथ्वी अपने अक्ष पर झुकी हुई है।
आज आधुनिक विज्ञान भी यही बताता है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर 23.44 डिग्री पर झुकी हुई है।


इसके अतिरिक्त एक घूमते हुए लट्टू में जो एक लहर सी आती है, उसी प्रकार पृथ्वी के घूर्णन में भी एक लहर आती है। इसके कारण पृथ्वी की एक और गति बनती है। इस चक्र को पूरा करने में पृथ्वी को छब्बीस हजार वर्ष लगते हैं।
भास्कराचार्य ने इसे 'भचक्र सम्पात' कहा है और इसकी कालावधि 25812 वर्ष निकाली थी। यह आज की गणना के लगभग बराबर ही है। इस गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के सामने और तेरह हजार वर्षों तक सूर्य के विपरीत में होता है। जब यह सूर्य के विपरीत में होता है तो 'हिम युग' होता है और जब यह सूर्य के सामने होगा तो यहाँ ताप बढ़ जाएगा जिससे बर्फ पिघलने लगेगी। इसके लिए आधुनिक विज्ञानियों ने पिछले 161 वर्षों के
उत्तरी ध्रुव में होने वाले तापमान में परिवर्तन की एक तालिका बनाई है। इससे भी यह बात सिद्ध हो जाती है।
तो क्यों न हम गर्व करें स्वयं के सनातनी होने पर।
✍प्रमोद शुक्ला जी की वॉल पर राष्ट्रवादी रवि कांत मिश्र जी के पटल से


हर पुराण तथा वेद में कई स्थानों पर न केवल पृथ्वी बल्कि सभी ग्रह, तारा तथा ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) को भी गोल लिखा हुआ है।


सृष्टि वर्णन में पृथ्वी वर्णन भूगोल तथा आकाश का वर्णन भूगोल या खगोल लिखा है।


वेद में सभी को मण्डल लिखा है।


पृथ्वी गोल होने के कारण हर स्थान पर अलग अलग समय सूर्योदय या सूर्यास्त होते हैं – यह उल्लेख भी सैकड़ों स्थानों पर है।


मान्धाता का राज्य पूरे विश्व में फैला था जिनके बारे में यह उक्ति सभी पुराणों में है कि उनके राज्य में हर समय कहीं सूर्योदय, कहीं सूर्यास्त होता रहता था।


इन्द्र की अमरावती पुरी में जब सूर्योदय होता था, उस समय यम की संयमनी पुरी में अर्ध रात्रि, वरुण की सुखा नगरी में मध्याह्न तथा सोम की विभावरी पुरी में सूर्यास्त होता था।


पुराणों में दो प्रकार के द्वीपों का वर्णन है-एक पृथ्वी के महादेश तथा दूसरे सूर्य के चारों तरफ ग्रहों की परिक्रमा से बने हुये क्षेत्र। ये ही वलयाकार या वृत्ताकार हैं (पृथ्वी से देखने पर)। पृथ्वी के व्यास को १००० योजन माना गया है (प्रायः १२.८ किमी. का १ योजन), अतः आकाश में पृथ्वी सहस्र-दल पद्म या सहस्रपाद है। ३ प्रकार की पृथ्वी है और सबमें द्वीपों, पर्वतों नदियों के नाम उसी प्रकार हैं जैसे पृथ्वी ग्रह पर हैं। ३ पृथ्वी हैं-सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह, सूर्य का प्रकाश क्षेत्र (३० धाम तक (ऋक् १०/१९८/३), सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा जहां वह विन्दु मात्र दीखता है (सूर्य सिद्धान्त १२/८२, ऋक् १/२२/२०-विष्णु सूर्य का परमपद)। हर पृथ्वी की तुलना में उसका आकाश उतना ही बड़ा है, जितना मनुष्य की तुलना में पृथ्वी ग्रह।रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते। स समुद्रसरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥ यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डला। नभस्तावत् प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण, २/७)
स्पष्टतः १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर १६ करोड़ योजन पुष्कर द्वीप नहीं हो सकता है। पृथ्वी के द्वीपों का अनियमित आकार है, वृत्ताकार नहीं है।
कई लोग अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि को छोड़ कर पृथ्वी के ७ द्वीपों का वर्णन करते हैं। किन्तु तुर्की की नौसेना के पास एक पुराना नक्शा था जिसमें अण्टार्कटिका के २ स्थल भाग तथा दोनों अमेरिका का नक्शा था। यह नौसेना प्रमुख ने नाम पर पिरी रीस नक्शा कहा जाता है। इसी के आधार पर कोलम्बस ने अमेरिका यात्रा की योजना बनाई थी। यदि अमेरिका नहीं होता तो उसे योजना की तुलना में भारत पहुंचने के लिये १०-१२ गुणा अधिक जाना पड़ता।
एसिया जम्बू द्वीप, अफ्रीका कुश द्वीप, यूरोप प्लक्ष, उत्तर अमेरिका क्रौञ्च, दक्षिण अमेरिका पुष्कर तथा आस्ट्रेलिया शक (या अग्नि कोण में अग्नि या अंग द्वीप) था। आठवां अण्टार्कटिका अनन्त या यम (जोड़ा) द्वीप था।
नक्शा बनाने के लिये उत्तर और दक्षिण गोलार्धों को ४-४ भाग में नक्शा बनता था, जिनको भू-पद्म का ४ दल कहा गया है। उत्तर भाग के ४ नक्शे ४ रंग में बनते थे जिनको मेरु के ४ पार्श्वों का रंग कहा है। उज्जैन के दोनों तरफ (पृर्व से पश्चिम) ४५-४५ अंश भारत दल है। विषुव से ध्रुव तक आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोकों का विभाजन है-विन्ध्य तक भू, हिमालय तक भुवः, हिमालय स्वर्ग (त्रिविष्टप्), चीन महः (महान् से हान् जाति), मंगोलिया जनः, साइबेरिया तपस् (स्टेपीज), ध्रुव वृत्त सत्य लोक हैं। भारत के पश्चिम केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व, तथा विपरीत दिशा में कुरु दल हैं।
उत्तर के अन्य ३ दल को ३ तल कहते हैं। भारत के पश्चिम अतल (उसके बाद का समुद्र अतलान्तक), पूर्व में सुतल, उससे पूर्व पाताल हैं। भारत के दक्षिण तल या महातल (दोनों को कुमारिका खण्ड कहते थे, आज भी उसे भारत महासागर कहते हैं), अतल के दक्षिण तलातल, पाताल के दक्षिण रसातल, तथा सुतल के दक्षिण वितल हैं। गोल पृथ्वी का समतल नक्शा बनाने पर ध्रुव प्रदेश में अनन्त माप हो जाती है। उत्तरी ध्रुव जल में होने के कारण (आर्यभट) वहां कोई समस्या नहीं है, पर दक्षिणी ध्रुव स्थल पर है, जिसका अलग से नक्शा बनाना पड़ता है। अनन्त माप होने के कारण यह अनन्त द्वीप है।
स्वायम्भुव मनु के समय के ४ नगर परस्पर ९० अंश पर थे-इन्द्र का अमरावती (भारत का पूर्वी नगर, किष्किन्धा काण्ड के अनुसार ७ द्वीपों वाले यव द्वीप का पूर्व भाग), पश्चिम में यम की संयमनी (यमन, अम्मान, सना आदि), पूर्व में वरुण की सुखा, विपरीत दिशा में सोम की विभावरी।
वैवस्वत मनु के समय से अन्य ४ सन्दर्भ नगर हुये-लंका या उज्जैन, पूर्व में यमकोटिपत्तन (यम द्वीप अण्टार्कटिका जैसा जोडा द्वीप न्यूजीलैण्ड के दक्षिण पश्चिम, पश्चिम में रोमकपत्तन (मोरक्को के पश्चिम समुद्र तट पर), विपरीत में सिद्धपुर।
उज्जैन या लंका से ६-६ अंशके अन्तर पर ६० कालक्षेत्र थे जो सूर्य क्षेत्र, लंका या मेरु कहे जाते हैं। लंका का समय पृथ्वी का समय था अतः उसके राजा को कुबेर कहते थे (कु = पृथ्वी, बेर = समय) उसी देशान्तर पर उज्जैन में महाकाल हैं। इसके पूर्व पहला कालक्षेत्र पर कालहस्ती है। उसी रेखा पर चिदम्बरम्, केदारनाथ आदि हैं। इससे ठीक १८० अंश पूर्व मेक्सिको का सूर्य पिरामिड है। किष्किन्धाकाण्ड (४०/५४, ६४) के अनुसार पूर्व के अन्त का चिह्न देने के लिये वहां ब्रह्मा ने द्वार बनाया था। उज्जैन से ४२ अंश पूर्व क्योटो (जापान की पुरानी राजधानी), ४२ अंश पश्चिम हेलेस्पौण्ट, ७२ अंश पश्चिम लोर्डेस (फ्रांस पूर्व सीमा), ७८ अंश पश्चिम स्टोनहेन्ज (लंकाशायर) आदि हैं।✍🏻अरुण कुमार उपाध्याय
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