निस्पंद
प्राण हो निस्पंद, फिर भी,कर रहा स्पंद हृदय,
हो ज़रा निस्तेज साँसें,
फिर भी ये संकल्प कृत हो।
शरीर तो धरती का है,
आत्मा उड़ान भरती है,
मृत्यु के साए में भी,
जीवन की ज्योति जलती है।
धड़कनें थम सी गईं हैं,
शरीर बेजान सा पड़ा है।
प्राणों की डोर छूट सी गई है,
फिर भी हृदय धड़क रहा है।
निस्तेज सी हो गई हैं आँखें,
देख नहीं पातीं अब दुनिया।
साँसें भी थम सी गई हैं,
फिर भी संकल्प है अटल।
जीवन की यात्रा अब समाप्ति की ओर,
मगर मन में एक उम्मीद है।
अंधेरे में जगमगाती दीपक की बाती,
जो बुझने नहीं देती।
कर्मों का फल मिल रहा है,
शांति मिली है मन को।
अंत समय में भी,
संस्कारों की गंगा बह रही है।
यह जीवन है संघर्ष का मैदान,
जहाँ हारना जीतना लगा रहता है।
मगर हारकर भी जीतना सीखना,
यही जीवन का सार है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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