छुआछूत की राजनीति से तौबा

छुआछूत की राजनीति से तौबा

डॉ अवधेश कुमार अवध

छुआछूत को कुछ खास आग्रह के साथ गलत रंग दिया जा रहा है जो चिंता जनक है तथा सजगता की मांग करता है।
जो लोग छुआछूत का आरोप लगाते हैं, वे भी छुआछूत मानते हैं। दरअसल यह सफाई, स्वच्छता और दैहिक पवित्रता से संबंधित विषय है। आज भी अगर कोई पूजा करने हेतु घर के मंदिर में भी जा रहा है और उसका परिजन/प्रियजन गंदा होकर, मांस खाकर, मदिरा पीकर या किसी अन्य तरीके से दैहिक रूप से अपवित्र होकर उस व्यक्ति को छूना चाहे या मंदिर में आना चाहे तो स्वीकार्य नहीं है। उसे दूर ही रहने हेतु निर्देशित किया जाता है। ऐसे लोग ऐसी परिस्थिति में प्रायः दूर ही रहते हैं। जिस घर में ये पूजा या समाज में यज्ञ/अनुष्ठान कई दिनों तक लगातार चलता है वहां मांस, मदिरा एवं दैहिक गंदगी आदि एवं उसके पालनकर्ता का प्रवेश निषेध रहता है। इस तरह लगातार अपवित्र एवं गंदे लोग दूर होते चले जाते हैं। कदाचित सदियों पहले छुआछूत की शुरूआत भी ऐसे ही हुई हो सकती है।
हम लोगों ने बचपन में देखा है कुछ बच्चों को अपने शरीर में नीम का तेल लगाकर विद्यालय आते हुए। आज भी अगर कोई ब्राह्मण बालक नीम का तेल लगाकर लोगों के बीच में आए तो क्या कोई उसे अपने पास बैठने देगा! नहीं क्योंकि नीम के तेल की तीक्ष्ण गंध बर्दास्त नहीं होती। तो क्या यह निष्कर्ष निकाल लेना उचित होगा कि 'वे लोग' ब्राह्मण के बच्चे को अछूत मानते हैं! नहीं न। ठीक ऐसे कि किसी काल खंड में गरीबी ने मरे हुए सड़े गले पशुओं के मांस से उदर भक्षण करने हेतु मजबूर किया था। क्या आज भी आप बड़े गले मांस को खाते हुए व्यक्ति को अपने डाइनिंग टेबल पर बैठाकर सात्विक प्रसाद या भोजन ग्रहण करेंगे! नहीं न। ऐसे बहुतेरे कारण हैं जिसने छुआछूत को जन्म दिया था।

इसलिए आग्रह छोड़कर सभी को सच्चाई के साथ समझना व समझाना चाहिए। इसमें ब्राह्मण या किसी जाति विशेष का दोष नहीं है अपितु परिस्थिति वश पहले कुछ हुआ था, अब कुछ हो रहा है, बाद में कुछ होगा। स्तरीकरण के बिना कोई व्यवस्था चल ही नहीं सकती। परिवार, समाज या संस्था भी नहीं। इसलिए इसको किसी खास जाति का कुचक्र न मानकर परिस्थितिजन्य मानना चाहिए। आज वे कारण मिट रहे हैं इसलिए छुआछूत भी मिट रहा है। इस बदलाव का स्वागत भी करना चाहिए।
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