मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि से समझें-

मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि से समझें-

-प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
हमें अपनी दृष्टि स्वयं विकसितकरनी चाहिए। स्वयं ही विकसित करनी चाहिए और यदि विकसित है तो उसका प्रयोग करना चाहिए।
उदाहरण के लिए मार्क्सवाद ।
मार्क्सवाद को हिंदू दृष्टि से कैसे देखें ?
किसी भी वाद को देखने के लिए सर्वप्रथम उस पक्ष का यानी पूर्व पक्ष का सांगोपांग अध्ययन करना चाहिए।
उस पर मैंने बहुत बार लिखा है ।
यहां उसका संकेत कर चर्चा करूंगा।
विस्तार से जिसकी इच्छा है वह हमारे लेख आदि को पढ़े या वीडियो सुने।
मार्क्स के प्रतिपादन का सार हैकि सभ्यताओं का विकास वर्ग संघर्ष से होता है।
वर्ग संघर्ष का अर्थ है कि जो अधिक बुद्धिमान लोग होते हैं वह स्वभाव से शोषक होते हैं और कम बुद्धिमान का शोषण करते हैं और उनसे काम ज्यादा लेते हैं और उनको उनके परिश्रम का मूल्य कम देते हैं और इससे जो अतिरिक्त मूल्य सर प्लस बचता है उससे वतकनीकी का क्रमशः विकास होता है।
इसका अर्थ है कि हर बुद्धिमान व्यक्ति और समूह शोषक होता है ।
यह मार्क्स का सिद्धांत है।
बाद में जब पूछा गया कि तो फिर आप भी शोषक हैं तो अपने बचाव के लिए उसने स्वयं के और अन्य कम्युनिस्टों के वर्ग च्युत होने की एक परिकल्पना प्रस्तुत की जो प्रमाणित नहीं है ।
इस प्रकार यदि आप मार्क्सवाद को सचमुच भारतीय दृष्टि से पढ़े तो यह पाएंगे कि यह तो दूसरों का शोषण करने और दबाने की मूल मनोभूमि से लिखा गया एक विचार है।
अब इसको ना देखकर आप आए बाय सोचते रहे तो यह आपका मनोरोग है या बुद्धि की अल्पता है।
इसी प्रकार मार्क्स ने यह प्रतिपादित किया कि संसार में केवल यूरोपीय लोग ही विकसित हैं और इसलिए भारत जैसे जो भी देश हैं वहां सबसे अच्छा है कि यूरोपीय लोगों का राज्य हो और अगर नहीं हो सकता तो इस्लाम का राज्य हो।तो बाद में यूरोपीय लोगों का राज्य हो जाएगा।
इस प्रकार वह पापकर्म, निकृष्टता, नृशंसता ,क्रूरता और पैशाचिकता का पक्का पक्षधर एक व्यक्ति था ।
तीसरी बात उसे दुनिया के बारे में कुछ पता नहीं था ।
दुनिया भर में पादरी और लुटेरे दस्यु दल जो कुछ भी झूठभरे किस्से कहानी गप्पे हांक कर वहां लिखित रूप में पहली बार लिखना आने के कारण संचित कर रहे थे ,(उसके पहले तो पादरियों को बाइबल के सिवाय कुछ पढ़ना लिखना आता ही नहीं था और समस्त विद्याओ का लोप उन्होंने कर दिया था ,पुस्तकालय जलाए थे ,विद्या का महाविनाश किया था),
तो 17वीं 18वीं और 19वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार पढ़ना लिखना शुरू करके उन्होंने जो गप्पे दुनिया भर के बारे में इकट्ठे किए, उन्हें ही मार्क्स ने पढ़ा और उसे यह भ्रम हो गया कि यूरोपीय लोग संसार के सबसे सभ्य लोग हैं ।
जबकि उसने स्वयं अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूंजी के कई अध्याय इस बात पर लगाए हैं कि कितनी नृशंसता यूरोप में थी। बच्चों और स्त्रियों के साथ कैसा भीषण अत्याचार कैसा कठोर और क्रूर व्यवहार किस तरह अत्यंत घृणित प्रताड़ना और शोषण होता है।
ऐसे शोषण और नीचता और नृशंसता और पशुओं से भी गए गुजरे समूहों को सबसे सभ्य मानने वाला मार्क्स स्वयं क्या था?यह इससे पता चलता है कि वह एक अपने परिचित समूहों के प्रति मुग्ध एक अत्यंत सीमित बुद्धि का व्यक्ति था जिसे सत्य नहीं दिख रहा था ।
जो इतना अंधा हो गया था कि स्वयं जिन लोगों की पोल खोल रहा है ,जिन्हें नीच और दुष्ट बता रहा है ,उनको ही संसार के सबसेसभ्य समूह बता रहा है तो आप यह देखते और यह बताते कि मार्क्स इस तरह का व्यक्ति था।
अगली बात, उसमूर्ख को यह नहीं पता था कि यूरोप के लोग मध्य एशिया से गए भारतवंशी लोग हैं। वह कोई अलग नस्ल नहीं है।
तो इस प्रकार मानव जाति और मानव समाज के विषय में वह घोर अज्ञानी था ।
चौथी बात, जब उसने यह कहा कि तकनीकी के उदय से जो गरीब लोग हैं वह तकनीकी के जानकार होने के कारण शासन धनियों से छीन लेंगे तो इसमें उसकी मूल मानसिकता हिंसा, धनियों से विद्वेष और घृणा और आवश्यकता पड़ने पर क्रूरतम हत्या और बलात्कार और अत्याचार की ही थी।
इंग्लैंड फ्रांस आदि के अनुभवों से वह धनियों से बहुत डरता था ,कापता था और उनके विरुद्ध बेबस अनुभव करता था।
तो उसने कल्पना की कि जब तकनीकी की उन्नति हो जाएगी तो हमारे जैसे लोगों की बेबसी खत्म हो जाएगी और हम सत्ता छीन लेंगे और इन धनियों को मार डालेंगे ।
इतना घृणित हत्या विद्वेष और ईर्ष्या का भाव उसके भीतर प्रचंड था ।
भारतीय दृष्टि से यह पहले ही नजर में साफ हो जाता है और मैं 15 से 18 वर्ष की उम्र में मार्क्स को विस्तार से पढ़ा और तभी से मैं मार्क्स की सारी पोल जान गया और उसके बाद मैंने एक दिन भी उस मतवाद के पक्ष में एक शब्द संपूर्ण जीवन में नहीं लिखा।
तो भारतीय दृष्टि से मार्क्स को इस तरह देखना चाहिए ।
यही कारण है कि जब लेनिन और स्टालिन नामक लफंगों ने सोवियत संघ में क्रांति की तो उन्होंने इस मूल तत्व को पैरों की ठोकर मारकर भुला दिया कि विकसित समाजों में ही क्रांति हो सकती है ।
उसके स्थान पर उन्होंने केवल यह सार ग्रहण किया कि अगर हिंसा का अवसर हो और आप अपने से शक्तिशाली समूह की हिंसा हत्या आदि के लिए संगठित हो सके तो चाहे जिस स्थिति में उनको छल कपट से ,घात लगाकर मार कर सत्ता छीन ले।
यही कारण है कि सोवियत संघ का समाज अत्यंत दरिद्र और अविकसित खेतिहर समाज होते हुए भी वहां क्रांति इसलिए की गई कि हिंसा का अवसर हत्याएं लूटपाट और सत्ता छीनने का अवसर अचानक उन्हें मिलगया था ।
जब आप मार्क्सवाद को इस तरह से देखेंगे तो अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि क्यों सोवियत संघ में और चीन में तथा सभी कम्युनिस्ट देश में कम्युनिस्टों ने पार्टी के बल पर सत्ता हथियाने के बाद इतनी भयंकर हत्याएं की, लूटपाट की ,लोगों को मारा, उनकी संपत्ति छीनी, उनका सब कुछ नष्ट किया और चीन में तो मनुष्य को जीवित खाया गया ।कई करोड़ मनुष्यों को जीवित खाया गया ।
अब इन तथ्यों को आप मार्क्सवाद पर मूर्खों की तरह बहस करके कभी जान ही नहीं सकते।
इसीलिए भारत में जो लोग मार्क्सवाद का वैचारिक विरोध करते हैं और उसे वैचारिक लड़ाई लड़ते हैं वह या तो उल्लू और लल्लू है या उनकी उनसे मिली भगत है और क्योंकि कम्युनिस्ट भी उनका भाई ही होता है इसलिए उसकी पैशाचिकता ,अनीति ,दुष्टता और हीनता को दिखाने से बचने के लिए वैचारिक युद्ध का नाटक किया जाता है।
भारतीय दृष्टि से देखने पर ही मार्क्सवाद की आड़ में पैशाचिकता और क्रूरता,नृशंसता
,भीषण हत्याएं तथा धनियों से और मध्यम वर्ग से भी संपत्ति छीनने किसानों को उजाड़ने ,उनकी
हत्या करने और बेशर्मी से किसानों और मजदूरों की बात करने का महा पाखंड महापाप और महा धूर्तता समझ में आएगी।
वैचारिक युद्ध की बात करने वाले मूर्ख लोग कभी भी या तो समझ नहीं सकेंगे या समझ कर छुपाने के लिए वैचारिक युद्ध की बात करते हैं ।
तो मार्क्सवाद का अर्थ है घृणा, ईर्ष्या द्वेष हिंसा और हत्या के लिए बजबजाते नरपिशाचों का एक समूह।
आज संक्षेप में इतना ही।प्रो रामेश्वर मिश्र पंकज
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