कुछ अधूरे अफसाने

कुछ अधूरे अफसाने

रह गया मैं स्वयं ही अधूरा ,
क्या सुनाऊॅं निज फसाने ।
रह गया है एकाकी जीवन ,
मेरे कुछ अधूरे अफसाने ।।
नहीं रहा कोई जोश जुनून ,
सुना सकूॅं तुझे कोई तराने ।
गर सुनाऊॅं तुम्हें मैं तराना ,
सुनने को मिलेंगे ताने बाने ।।
क्या सुनाऊॅं मैं हाल अपना ,
मेरा हाल तो मेरे राम जानें ।
मेरा तो गर्दभ राग ही हुआ है ,
ढेंचू ढेंचू ही हम लगेंगे सुनाने ।।
भरता नहीं यह पेट है हमारा ,
दिनभर घूमता चुगने को दाने ।
अबतक थे किशोर ही हम तो ,
अब हुए हैं हम भी बड़े सयाने ।।
जानता ही नहीं मैं तो कुछ भी ,
फिर भी चला तुझे आजमाने ।
आजमाने में मैं बन गया उल्लू ,
ऐसे थप्पड़ मुझे लगाए जमाने ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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