
आज बहुत रोने का मन है
श्री ज्योतिन्द्र मिश्रआज बहुत रोने का मन है
तुमसे आज मिलने का मन है
उतरो उतरो मेरे नयन में
उतरो सावन के आंगन में
ढुलक ढुलक पलकों से
कपोलों के उपवन में
आतुर हृदय पुकारे अह रह
हहर हहर हुआ बेसुध तन है
आज बहुत रोने का मन है
तुमसे आज मिलने का मन है
जग का ठौर ठिकाना छूटा
चेहरे रूठे आइना टूटा
बचा नहीं कुछ शेष कहूं क्या
किसने लूटा क्या क्या लूटा
खुद को अब खोने का मन है
तुमसे आज मिलने का मन है
उतरो उतरो मेरे नयन में
उतरो सावन के आंगन में
ढुलक ढुलक पलकों से
कपोलों के उपवन में
आतुर हृदय पुकारे अह रह
हहर हहर हुआ बेसुध तन है
आज बहुत रोने का मन है
तुमसे आज मिलने का मन है
जग का ठौर ठिकाना छूटा
चेहरे रूठे आइना टूटा
बचा नहीं कुछ शेष कहूं क्या
किसने लूटा क्या क्या लूटा
खुद को अब खोने का मन है
तुमसे आज मिलने का मन है।
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