मां छिन्नमस्तिका - दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है मां छिन्नमस्तिके मंदिर। यह मंदिर झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर अवस्थित है। मां छिन्नमस्तिका मंदिर आस्था की धरोहर है। रजरप्पा का यह सिद्धपीठ, केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है, बल्कि छिन्नमस्तिके मंदिर के अलावा यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल 7 मंदिर स्थापित हैं।
मंदिर के निर्माण काल के संबंध में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण 6,000 वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। लेकिन यह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। मां छिन्नमस्तिके की महिमा की पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्राचीनकाल में छोटा नागपुर में रज नामक एक राजा राज करते थे। राजा की पत्नी का नाम रूपमा था। इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा, जो बाद में रजरप्पा के नाम से जाने लगा है।
किदवंती कथाओं के अनुसार, एक समय राजा रज पूर्णिमा की रात में, शिकार की खोज में दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे। रात्रि विश्राम के दौरान राजा रज ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक कन्या देखी। उस कन्या ने राजा रज से कहा कि- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। इसतरह का सपना देखते ही राजा रज की आंखें खुल गई। वे इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिली। वह कन्या जल के अन्दर से राजा रज के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा राज भयभीत हो गए। राजा को देखकर देख वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं। कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं, जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। देवी बोली- हे राजन, भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं।
एक अन्य किदवंती कथा के अनुसार, एक समय भगवती भवानी अपनी सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन की मांग करने लगी। देवी ने सहेलियों से कुछ देर प्रतीक्षा करने को कहा। बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा और गले से रक्त की 3 धाराएं निकलने लगी। वह 2 धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगी है और एक धारा स्वयं रक्तपान कर रही हैं। तभी से मां छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं।
पश्चिम दिशा से दामोदर नदी और दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर नदी से मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। इसी संगम स्थल के समीप मां छिन्नमस्तिके का मंदिर है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है। मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं। मां के दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की 3 धाराएं बह रही हैं।
मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है। मंदिर के ठीक सामने बलि का स्थान है। बलि स्थान पर प्रतिदिन औसतन 100-200 बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर खुले आसमान के नीचे एक बरामदा है। इसके पश्चिम भाग में भंडारगृह है। रुद्र भैरव मंदिर के नजदीक एक कुंड है। मंदिर की भित्ति 18 फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में एक अद्भुत पापनाशिनी कुंड है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करता है। यहां मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। दामोदर नदी के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था। इसे तांत्रिक घाट भी कहा जाता है, जो 20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। यहां से भक्त दामोदर नदी में स्नान कर मंदिर में जाते हैं।
दामोदर नदी और भैरवी नदी का संगम स्थल अत्यंत मनोहारी है। भैरवी नदी को स्त्री नदी माना जाता है जबकि दामोदर नदी को पुरुष नदी। संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है। कहा जाता है कि जहां भैरवी नदी दामोदर नदी में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है। आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहां स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं।
रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन हो चुका है। तीर्थस्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है। अब यह पर्यटन स्थल का मुख्य केन्द्र है।
मंदिर में प्रातःकाल 4 बजे से माता का दरबार सजना शुरू हो जाता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से ही पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। इस भीड़ को संभालने और माता के दर्शन को सुलभ बनाने के लिए कुछ माह पूर्व पर्यटन विभाग द्वारा गाइडों की नियुक्ति की जाती है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय पुलिस भी मदद करती है। मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी-छोटी दुकानें हैं। आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पूर्व ही लौट जाते हैं। जबकि अब मां छिन्नमस्तिके मंदिर के निकट ठहरने के लिए भी उत्तम व्यवस्था हो गई है। मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क बन गई है। सुबह से शाम तक मंदिर पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रैकर भी अब उपलब्ध रहती हैं।
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