श्रावणी उपाकर्म

श्रावणी उपाकर्म

सुशील कुमार मिश्र
श्रावणी उपाकर्म -इस पर्व का नाम श्रावणी होने के कारण यह शब्द, श्रुति व श्रवण शब्दों से जुड़ा हुआ है। श्रुति से श्रवण, श्रवण शब्द श्रावणी बनकर आज का श्रावणी पर्व अस्तित्व में आए हैं। श्रुति वेद को कहते हैं जिसका एक कारण आरम्भ में ब्रह्मचारियों को वेदों का ज्ञान श्रवण से व सुना कर कराया गया और कराया जाता रहा है। इसका सीधा संबंध वेदाध्ययन से है। चंद्र दोष से मुक्ति के लिए श्रावण पूर्णिमा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। श्रावणी उपकर्म में पाप, उपपताका और महापताका से बचने का व्रत लिया जाता है। इसमें चोरी न करना, दूसरों की निन्दा न करना, खानपान का ध्यान रखना, हिंसा न करना, इन्द्रियों को वश में करना और सदाचारी होने के नियम सम्मिलित हैं।
विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं। इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिए।
‘भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:’
संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिए। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं।
‘श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥’

अर्थात श्रावण पूर्णिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिए। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिए एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन।

भद्रा में श्रावणी करने से क्षति: भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिद्ध है। ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं।
विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है – प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है – प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी मृतिका ,भस्म,गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा, अपामार्ग से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है।
इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं।
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