भुख न देखे अच्छी ठाट, नींद न देखे टूटी खाट।

भुख न देखे अच्छी ठाट, नींद न देखे टूटी खाट।

जय प्रकाश कुवंर
भुख लगने पर पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए आदमी कुछ भी खाने के लिए तैयार हो जाता है। उस समय वह अच्छे ठाट बाट के खाने की बात लगभग भुला जाता है। वह कुछ भी खाकर भुख की ज्वाला को शांत करना चाहता है। ठीक उसी तरह जब आदमी को नींद बेचैन करती है उस समय वह यह नहीं देखता है कि खाट टूटी हुई है अथवा उस पर अच्छा बिछावन है कि नहीं। वह किसी जगह यहाँ तक की जमीन पर भी लेटकर शांत होकर नींद पुरी कर लेना चाहता है। भुख और नींद में भी गहरा सम्बन्ध है। भुखे पेट नींद भी नहीं आती है, चाहे बिस्तर कितना भी आरामदायक क्यों न हो। पेट भरे रहने पर टूटी खाट पर भी अथवा जमीन पर भी नींद आ जाती है। वैसे तो यह समस्या गरीब अमीर सबके साथ है, पर गरीब की जिंदगी कुछ ज्यादा ही परेशानी वाली होती है, खासकर गरीब मजदूर वर्ग के लोगों के लिए। उसे काम करना पड़ता है पेट भरने के लिए, चाहे मौसम कैसा भी क्यों न हो। इस समय भी परिस्थितियों के अनुसार उन्हें मजदूरी के लिए उपयुक्त निर्णय लेना पड़ता है, ताकि भुख भी मिट जाय और परेशानी न हो। गरीब खेतिहर मजदूरों के लिए सबसे परेशानी का मौसम होता है बरसात का मौसम। इस समय उनको काम मिलने की परेशानी एक तरफ होती है, तो दुसरी तरफ उनके संसाधनों का नष्ट हो जाना भी होता है। लाख कोशिश करने के बावजूद भी वे इस समस्या से जुझते रहते हैं। इस सम्बन्ध में मुझे गाँव में घटी एक बहुत पुरानी कहानी याद आ रही है, जिसे आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ।
एक गाँव में सुखू और दुखू नाम के दो खेतिहर मजदूर रहते थे। वे खेती बारी के हर काम में दक्ष थे अत: गाँव के लोग उन्हें अपने खेती के काम में लगाते थे। साल के और महीनों में उन्हें कोई तकलीफ नही होती थी, परंतु बरसात के समय उन्हें कुछ परेशानी होती थी, कारण उनका कोई परिवार नहीं था। वे दोनों पास पास ही अपने घरों में अकेले रहते थे। रोज किसी न किसी के यहाँ काम पर जाते और जो मजदूरी मिलता उससे अपना पेट भर लेते थे। एक बार बरसात कुछ ज्यादा ही हो जाने के वजह से उस गाँव में काम मिलने में कुछ कठिनाई आने लगी। चूकि वो दोनो रोज कमाने और खाने वाले थे अत : एक दो दिन फांका भी हो जाता था। ऐसी स्थिति में वे दोनों बगल के गाँव में मजदूरी तलाश करने चले गए। वो दोनों दो दिन से भुखे थे, क्योंकि कोई मजदूरी नहीं मिली थी। वहाँ धान की रोपाई चल रही थी। एक सम्पन्न किसान ने उन्हें अपने यहाँ धान की रोपाई में मदद के लिए मजदूरी पर रोजाना मजदूरी पर रखा और उनसे कह दिया कि चूंकि अभी रोज पानी पड़ रहा है, अतः उनके इच्छा अनुसार ही उन्हें मजदूरी दी जाएगी। अगर वो पैसा चाहेंगे तो पैसा दिया जाएगा अथवा खाने के लिए कोई अन्न चाहेंगे तो उन्हें वही दिया जाएगा। वो दोनों राजी हो गये और काम पर लग गए। काम खत्म होने पर शाम को उन्हें मजदूरी के लिए पुछा गया। उनमें दुखू काफी सीदा सादा और बुड़बक मजबूर था। उसने बरसात का मौसम देखकर अपने लिए सतू, नमक और प्याज हरा मीर्च मांग लिया। वहीं सुखू जो थोड़ा ज्यादा होशियार था वह दुखू की मांग पर हंसते हुए बोला कि दुखू कितना बुद्दू है कि वह सतू मजदूरी मांग रहा है। उसने अपने लिए चावल, दाल की मांग की। उस किसान ने उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार मजदूरी देकर बिदा कर दिया। वो दोनों अपने घर आए। घर आकर दुखू ने अपने भुख की ज्वाला को मिटाने के लिए सतू सानकर नमक मिर्च के साथ भर पेट खा लिया और आराम करने लगा। इस बीच पेट भर जाने से उसे नींद आ गयी। उधर सुखू अपने घर पहुँचा तो देखता है कि उसने कुछ लकड़ियाँ जो चुन बिन कर रखा था, वह बरसात की वजह से गीली हो गई हैं। अब तो न उसका चूल्हा जल सकता था और न भात दाल बन सकता था। वह सिर पर हाथ रखकर पछताने लगा और भुख से छटपट करने लगा तथा फुटफुट कर रोने लगा । पड़ोस के घर में सोए हुए दुखू को उसके रोने की आवाज आई तो उसकी नींद खुल गई। वह उठकर सुखू के पास गया तो देखता है कि सुखू का चूल्हा भी नहीं जला है। उसके चावल दाल की गठरी उसी तरह बंधी पड़ी है। उसकी सारी स्थित जानने के बाद दुखू को उसपर दया आ गयी और उसने अपने बचे हुए सतू को उसे भी खाने को दिया। दुखू का सतू भरपेट खाकर वह संतुष्ट हुआ और दुखू की सराहना की, कि उसने बरसात की मौसम को देखते हुए और अपने घर की स्थिति को देखते हुए, बने बनाये खाना सतू की मजदूरी की मांग की थी।
अतः कहा गया है दोस्तों, कि अवसर आने पर परिस्थितियों को देखते हुए सही निर्णय ही आदमी के काम आता है और उसे दुख से बचाता है। उच्च समाज चाहे जैसा सोचे, पर मध्यमवर्गीय समाज के लिए सतू एक ऐसा बना बनाया खाद्य पदार्थ है, जो सालों भर हर मौसम में खाने के लिए तैयार रहता है और पेट भरने के साथ मन को संतुष्टि प्रदान करता है। जय प्रकाश कुवंर
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