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गुरु न चेला चलेचल अकेला

गुरु न चेला चलेचल अकेला

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
दो पुरानी आख्यायिकाओं के उदाहरण से छोटी सी एक नयी बात रखना चाहता हूँ। पहले कुछ नमूनेदार निष्ठावान चेलों की बौद्धिक स्थिति जान-समझ लें, फिर आगे कुछ बातें होंगी।
एक साधुजी अपनी सेवा में दो प्रिय चेलों को रखे हुए थे। साधुजी की ओर से उन दोनों में कोई भेद-भाव नहीं था। दोनों को समान रूप से पुत्रवत लाढ़ करते थे, किन्तु आए दिन उन दोनों में तकरार होते रहता था कि महात्माजी किसे ज्यादा मानते हैं। रात सोते समय दोनों की ड्यूटी बनी थी मालिश करने की। दोनों ने आपस में तय कर रखा था कि एक दाहिने भाग की मालिश करेगा और दूसरा बाएँ भाग की। दोनों अपने-अपने हिस्से के भागों की खूबसूरती और मजबूती का बखान करते । एक दिन मालिश करते समय ही दोनों में वाद-विवाद होने लगा। वाक् युद्ध से मलयुद्ध की स्थिति बन गई। एक ने कहा—तुम्हारे हिस्से वाला पैर तोड़ दूँगा। दूसरे ने भी यही बात दुहराई । उसने सुन रखा था कि जो पहले वार करता है, वह विजयी होता है। अतः डण्डा उठाया और दे मारा पैर पर। साधुजी अभी उठते-सम्हलते, तबतक दूसरे पैर पर डण्डे के विरोध में मोटे मुद्गर का प्रहार हो गया। दोनों पैरों की हड्डियाँ चटक गई।
एक और प्रसंग— एक भोले-भाले यजमान को उसकी पत्नी ने सुझाव दिया कि वो अपने पितरों की प्रसन्नता के लिए पिण्डदान करे। कार्य कठिन जान पति ने बहुत आनाकानी जतायी, किन्तु पत्नी के दबाव और आग्रह के कारण अन्ततः स्वीकारना पड़ा। पंडितजी ने भी यजमानिन की बातों का समर्थन करते हुए कहा कि पिण्डदान करने में ज्यादा परिश्रम और दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है। जैसा कहा जायेगा वैसा ही साथ-साथ बोलना होगा और कार्य करना होगा।
अगले दिन नदी किनारे यजमान और पुरोहित पहुँच गए।
पंडितजी ने यजमान से पूछा—कुश, तिल वगैरह लाए हो?
जाहिल यजमान ने बात दुहराई-- कुश, तिल वगैरह लाए हो?
पंडितजी ने क्रोध में कहा— मैं यही पूछ रहा हूँ? मैं पूछ रहा हूँ कि कुश, तिल वगैरह लाए हो?
यजमान ने फिर वही बातें दुहराई— मैं यही कह रहा हूँ? मैं पूछ रहा हूँ कि कुश, तिल वगैरह लाए हो?— क्योंकि उसे तो पंडितजी ने ही कहा था कि कुछ विशेष करना नहीं है, जैसा कहा जायेगा, साथ में वैसे ही करते जाना है।
पंडितजी का क्रोध और भड़का । पंडितजी जरा पहलवान किस्म के थे। दो-चार घूँसा लगाए और यजमान को उठा कर पटक दिए। मौका देख निष्ठावान यजमान ने भी वैसा ही किया।
आह-ऊह करते हुए पंडितजी उठे और सारा सामान नदी में फेंक कर बोले—जाओ हो गया पिण्डदान ।
आग-बबूला पंडितजी, छड़ी टेकते, अपने घर का रास्ता लिए। प्रसन्नचित् यजमान भी अपने घर पहुँचा। यजमानिन ने अपने पति से कहा कि पिण्डदान के बाद कुछ अन्न-वस्त्र, सीधा-बारी भी देना होता है पंडितजी को। इस पर पति ने कहा कि अब हमसे कुछ नहीं होने को है। बहुत थक गया हूँ। मैं पिण्डा दे आया, तुम जाकर सीधा दे आओ।
क्रोधित पंडितजी दरवाजे पर ही बैठे हुए थे। अन्न-वस्त्रादि लिए यजमानिन को देख कर उनका क्रोध और भड़क उठा। यजमान वाला बचाखुचा खीझ यजमानिन पर निकालने लगे। सारा सामान फेंक-फांक कर यजमानिन को भी एक पटकनियाँ दिए।
कराहती हुयी यजमानिन घर पहुँची। पति ने कहा—अब पता चला न । सोचो जरा— सीधा पहुँचाने में इतनी मेहनत है, तो पिण्डा देने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी...!
जाहिर है कि चेले की मूर्खता का परिणाम गुरु को भुगतना पड़ता है और ठीक ऐसे ही अयोग्य गुरु का दण्ड चेले भुगतते हैं।
वर्तमान समय में यही स्थिति चहुँओर है। बरसाती मेढ़कों की तरह बाबाओं की बाढ़ है। और एक-एक बाबा के हजारों हजार चेले हैं। चेलों में मूर्खता और जाहिलपने की होड़ लगी है। जहाँ कहीं भी जाते हैं, बहुरुपिये बाबा और उनके जाहिल अन्धभक्तों की टोली जरुर मिल जाती है। ये बाबा लोग प्रायः अकेले नहीं चलते, अकेले नहीं रहते। पदयात्रा भी प्रायः नहीं करते। बड़े बाबाओं की गाड़ी-बाड़ी सब बड़े-बड़े ही होते हैं—आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण। पुरानी परम्परा वाली घास-फूस की झोपड़ी इन्हें बिलकुल रास नहीं आती। कई-कई आलिशान भवनों के स्वामी हुआ करते हैं ये लोग। बैंक वैलेन्स के बारे में कहना ही क्या । गद्दे-तोषक में रुई की जगह नोटों का बंडल होता है। हाँ, ये बात अलग है कि चुँकि सोने-चाँदी का चावल खाया नहीं जा सकता, इस मजबूरी में चावल किसानों वाला ही खाते हैं। मजेदार बात ये लगती है कि ए.सी. में बैठ कर, आर.ओ. का पानी पीते हुए, सादा जीवन-उच्च विचार का उपदेश मिलता है। त्याग और तपस्या के सबक सिखलाए जाते हैं। सारा सार स्वयं समेटे बैठे बाबाओं द्वारा संसार की निःसारता की बात की जाती है ।
ज्यादातर बाबा विधिवत चेला बनाने में यकीन रखते हैं। चेलों की तुलना में चेलियों की संख्या अधिक हो तो उनका सेंसेक्श रिकॉर्ड अच्छा माना जाता है। बाबा की कद और औकात के हिसाब से ही चेले-चेलियों का स्तर भी प्रायः हुआ करता है यानी जैसे बाबा वैसे ही उनके आगे-पीछे घूमने वाले चेले भी । बाबा यदि सूटेड-बूटेड हैं, तो उनके फॉलोअर भी उसी तबके के होते हैं। उपदेश समझ आए, न आए; बात समझ में आयी—पूछने पर, गगनगम्भीर गिरा में गर्दन हिलाते हैं ऊँट की तरह, मानों सारा कुछ कण्ठस्थ हो गया नौरत्नों की तरह ।
अपना-अपना खेमा मजबूत करने के लिए प्रायः बाबा जीवनोपयोगी बातें कम, धार्मिक और साम्प्रदायिक बातें ही ज्यादा करते हैं, जबकि धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर भी उन्हें ठीक से ज्ञात नहीं। कुछ बाबा धर्मनिरपेक्षता का ढिंढोरा पीटते हैं। जबकि धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा तक उन्हें ज्ञात नहीं। मजे की बात ये है कि हर साम्प्रदायिक स्वामी अपने को सर्वश्रेष्ठ और शेष को निकृष्ट साबित करने में अपनी पूरी ऊर्जा खपा देते हैं। दुःखद ये है कि साम्प्रदायिकता के कंटीले जंगल में धार्मिकता भटकते रह जाती है। संवेदना सिसकते रह जाती है। मानवता तड़पते रह जाती है। धर्म कर्तव्य का प्रतीत नहीं, बल्कि विभेद और टकराव का कारण बन कर रह जाता है।
एक बात निश्चित जान लें—इन तथाकथित बाबाओं, स्वामियों, सन्तों के सानिध्य से पुरुषार्थ चतुष्टय में किसी एक की भी सिद्धि दुर्लभ है। और वैसे भी, जिसके पास सुख-शान्तिमय जीवनयापन के सूत्र ही नहीं हैं, वो जीवनोत्तर मोक्ष भला क्या दिला सकता है ! हालाँकि मोक्ष की चाहत ही कितनों की होती है ! भीड़ तो भोगवादियों की ही लगती है न !
सच तो ये है कि अकूत कामनाओं के बोझ तले दबे कराह रहे हैं हम । कष्ट और परेशानियों का मूल कारण ये बोझ ही है। इसे जबतक उतार फेंकने का प्रयास नहीं होगा, तबतक शान्ति की सूचना भी नहीं मिल सकती। शान्ति तो बहुत दूर की बात रही।
मेरे प्यारों ! भटकना बन्द करो बहुरुपिए बाबाओं के पीछे, पेशेवर गुरुओं की पीछे । इस भ्रम और बहकावे में भी न रहो कि गुरुदीक्षा नहीं ली है तो धर्म-कर्म सबकुछ व्यर्थ हो जायेगा। व्यर्थ कुछ भी नहीं होता—सुकर्म भी, कुकर्म भी। समय पर सबका हिसाब होता है। और वह हिसाब अकेले तुमसे ही लिया जायेगा। उसका परिणाम भी अकेले तुम्हें ही भुगतना होगा। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात – सुकर्म और कुकर्म के गोदाम में जब सिर्फ राख बचेगी, तभी पूर्ण शान्ति लब्ध हो सकेगी, उससे पहले नहीं, क्योंकि हमारे ही कर्मों का परिणाम है ये जन्म और ये जीवन। हमारी सनातन गुरु-शिष्य परम्परा बड़ी अद्भुत थी, जिसका अब पूरे तौर पर बाजारीकरण हो चुका है। अतः बाजार में बिकाऊ माल बन कर मत खड़े होओ मेरे भाई ! असली गुरु दुर्लभ है तो निष्टावान शिष्य भी दुर्लभ ही है। अतः इस गुरु-खोज में समय बरबाद करने से कहीं अच्छा है कि चुपचाप अपने विहित कर्मों को तटस्थ भाव से करने की आदत डालो । दौड़ लगाना बन्द करके, अधिक से अधिक एकान्त सेवन का अभ्यास करो। जनक-जननी ही सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं और निज सन्तानें ही सर्वश्रेष्ठ शिष्य । बस ! निःस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से इनकी सेवा और प्रतिपालन करो और बँचे हुए समय को श्वांसों की गिनती में लगा दो । श्वांस तो गिनकर ही मिले है न ! अस्तु।
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