विभीषण का निष्कासन

विभीषण का निष्कासन

डॉ राकेश कुमार आर्य
जब रावण के सभी दरबारी चाटुकारिता करते हुए उसकी हां में हां मिलाने का कार्य कर रहे थे, तब विभीषण जी ने खड़े होकर न्याय, नीति और धर्म की बात करना उचित समझा। उन्होंने अपने भाई रावण को समझाते हुए कहा :-


विभीषण ने तब रख दिए, हृदय के उद्गार।
राम को कोई जीत ले, असंभव यह विचार।।


धर्म राम के साथ है, और मर्यादा पतवार।
नीति निपुण श्री राम को, आए न दुष्ट विचार।।


नीति, न्याय और धर्म की, सेना राम के साथ।
उन्माद छोड़िए तुम सभी, हितकारी मेरी बात।।


गायों का दूध कम हो गया है। हाथियों का मद बहना बंद हो गया है। घोड़े दीनता सूचक हिनहिनाहट किया करते हैं और वह चारे से तृप्त नहीं होते । गधों और खच्चरों के रोंगटे गिर गए हैं और वह आंसू बहाया करते हैं। चिकित्सा करने पर भी वे स्वस्थ नहीं होते । इस प्रकार के अशुभ शकुनों का प्रायश्चित अथवा शांतिविधान मुझे तो यही अच्छा लगता है कि सीता जी को राम को लौटा दिया जाए।


अंत:पुर में भी विभीषण, समझा रहे लंकेश।
अशुभ शकुन से बन रहे, बचा लीजिए देश।।


क्रोध रावण को चढ़ा, बोला - हे मतिमूढ।
अशुभ शकुन कुछ भी नहीं, भाषण मत दे गूढ़।।


वक्तव्य दिया लंकेश ने , सभ्य जनों के साथ ।
सीता को मैंने हरा , हुआ काम आघात।।


सारे मेरा साथ दो, करता यही अपील।
बात मेरी यह मान लो , कोई नहीं दलील।।


कुंभकरण लंकेश को, कहता वचन कठोर।
अनीति पथ पर चल रहे, अनिष्ट खड़ा जिस ओर।।


घोर पाप किया आपने , फिर भी हूं मैं साथ।
शत्रु बनाया राम को, उचित किया नहीं काम।।


विभीषण और कुंभकर्ण सात्विक बुद्धि के व्यक्ति थे। राक्षस कुल में उत्पन्न होकर भी वह सात्विकता से भरे हुए थे। यही कारण था कि रावण ने उस समय जो कुछ भी किया था उसका परिणाम वे दोनों जानते थे। लंका और लंकावासियों को भविष्य की विनाशलीला से बचाने के लिए वे रावण को बार-बार समझा रहे थे कि वह श्री राम की शरण में चला जाए और उनसे संधि समझौता कर ले। पर रावण पर उस समय अहंकार का भूत चढ़ा हुआ था। फलस्वरुप रावण ने विभीषण और कुंभकर्ण दोनों की बातों को अनसुना कर दिया और उन्हें डपटते हुए कहने लगा :-


समुद्र के सम वेग है, गति वायु के समान।
रावण ने कहा गर्व से - राम को नहीं मेरा ज्ञान।।


मेरी विशाल - वाहिनी , करेगी राम विनाश।
नक्षत्रों का ज्यों दबे , सूरज से प्रकाश।।


( मूर्ख लोग सदा अपनी सैन्य शक्ति और बाहुबल पर घमंड किया करते हैं। रावण भी ऐसा ही कर रहा था। महाभारत के युद्ध में पांडवों की सेना से लगभग दोगुणी सेना का घमंड दुर्योधन को युद्ध के लिए प्रेरित कर रहा था, पर अंत में उसे पराजित होना पड़ा। इसी प्रकार रावण को भी अपनी सैन्य शक्ति और बाहुबल पर विशेष घमंड था। उसका भी अंतिम परिणाम विनाश ही निकला। वास्तव में युद्ध बड़ी-बड़ी सेनाओं से नहीं लड़े जाते हैं। युद्ध के पीछे भी जब धर्म, न्याय, परमार्थ और सत्य की चतुरंगिणी सेना खड़ी होती है, तभी विजय होती है।)


रावण की इस डींग पर , विभीषण के उद्गार।
लंका में अब शीघ्र ही , मचेगी हाहाकार।।


हर योद्धा यहां व्यर्थ ही , मार रहा है डींग।
युद्ध में श्री राम जी , तोड़ें सबके सींग।।


रावण ने फटकार दी, विभीषण की सुन बात।
कठोर वचन लगा बोलने, तू करता कुलघात।।


दु:खी विभीषण चल दिए , कर अन्तिम प्रणाम।
जा पहुंचे उस ठौर पर, जहां टिके थे राम।।




डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ