अपना अपना जख्म

अपना अपना जख्म

जख्म ए दिल है यह कहता ,
क्यूॅं परेशान है तू जख्मों से ।
एक तुम्हीं नहीं हो दुनिया में ,
दुनिया परेशान है जख्मों से ।।
सबका अपना अपना जख्म ,
तू जख्मों से क्यों चिल्लाए ।
तू ने किसी को जख्म दिया ,
आज जख्म तुम्हीं हो पाए ।।
आता आनंद जख्म‌देने में ही ,
तुम्हें भी कोई तो जख्म देगा ।
दुनिया परेशान है जख्मों से ,
तेरा कौन अब जख्म लेगा ।।
जख्म जख्म क्यों चिल्लाते ,
जख्म का मरहम तेरे पास है ।
उसका जख्म तुम मिटा दो ,
जिसे अभी भी तेरी आस है ।।
तू उसका जख्म मिटाके देख ,
वह तेरा भी जख्म मिटाएगा ।
तूने जैसा किया दूसरे संग में ,
वही तो तू भी यहाॅं पे पाएगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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