बिहार के लोकगीत

बिहार के लोकगीत

(अवध किशोर मिश्र, लखनीखाप औरंगाबाद)
यह सर्वविदित है कि किसी भी क्षेत्र की प्रगति, विकास, भाषा, समाज, साहित्य का उन्नयन उस क्षेत्र के लोकगीत में ही इतिहास बनकर उभरने की शक्ति सन्निहित होती है..
बिहार को समझने के लिए अन्य क्षेत्रों की तरह बिहार के लोकगीतों की ओर दृष्टिपात करना यथोचित होगा. यूं तो बिहार की तीन प्रमुख बोलियों- भोजपुरी, मगही, मैथिली में लोकगीतों की भरमार है.. चूंकि भोजपुरी क्षेत्र अधिक होने से भोजपुरी साहित्य में भी भोजपुरी लोकगीतों की बहुतायत है.. यद्यपि हिंदी भाषा की उपभाषा बिहारी हिंदी है और बिहारी हिंदी की तीन प्रमुख बोलियाँ- भोजपुरी, मगही, मैथिली होने के कारण बहुत से ऐसे लोकगीत हैं जो स्वाभाविक रूप से स्थानीय बोलियों के थोड़े से हेर-फेर के बावजूद उनके मूल स्वर और भाव में समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं..
यह सर्वविदित है कि लोकगीत की मौखिक परंपरा ही पीढ़ी-दर_पीढ़ी चलती हुई उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति....और कालांतर में समृद्ध भाषा ..इतिहास बन जाती है.
वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत अपभ्रंश के सफर के दौरान चौरासी सिद्धों ने अपनी कविता के लिए जिन बोलियों और भाषाओं का प्रयोग किया.. कालांतर में कबीर से चलकर भिखारी ठाकुर तक आते आते भोजपुरी लोकगीत को समृद्ध करता चला गया.. ..
कबीर साहेब के -

"कौन ठगवा नगरिया लूटल हो |0
चंदन काठ कै बनल खटोलना,
तापर दुल्हिन सुतल हो.. ||
उठो री सखी मोरी मांग संवारो,
दुल्हा मो से रूसल हो... ||
आए जमराज पलंग चढ़ि बैठे,
नैनन आंसू टूटल हो... ||
चारि जनै उठि खाट उठाइन,
चहूँदिस धू-धू उठल हो.... ||"

यह कोई अतिशयोक्ति नहीँ कि कबीर कई घाटों का पानी भले ही पी चुके हों.. लेकिन रहस्यवाद का पुट संभाले सधुक्कड़ी भाषा में भोजपुरी लोक रचनाओं को समृद्ध करते नज़र आ रहे हैं-

"तोर हीरा हिराइल बा किचड़े में |
कोई ढूँढे पूरब कोई ढूँढे पश्चिम,
कोई ढूँढे पानी पयरे में...||
सुर मुनि नर अरु पीर औलिया, सब भूलल बाड़े नखरे में.... ||
दास कबीर जे हीरा को परखै,
बांधि लिहलैं जतन से अंचरे में.||"
बिहारी लोकगीतों की प्रारंभिक अवस्था में संत कबीर की परंपरा का निर्वाह करने वाले निर्गुण कवि धरमदास जी ने भी अपनी शब्दावली, पृष्ठ 63 के तीसरे शब्द में भोजपुरी लोकगीत की एक बानगी प्रस्तुत की है-

"कहंवा से जीव आइल,
कहां समाइल हो... |
कहां कइल मुकाम,
कहंवा लपटाइल हो... ||
निरगुन से जिव आइल,
सगुन समाइल हो... ||
काया गढ़ कइल मुकाम,
माया लपटाइल हो...||"
बिहारी लोकगीतों को संत परंपरा ने जो मार्ग दिखाई वह अद्भुत है.

बिहारी लोकगीतों के संग्रह में पंडित रामनरेश त्रिपाठी जी का नाम उनकी प्रसिद्ध रचना 'कविता कौमुदी' में 19 गीतों का संग्रह है जिसमें सोहर, जनेऊ, विवाह, जांच, सावन, निरवाही, हिंडोला, कोल्हू, मेला, बारहमासा... आदि दस प्रकारों का संग्रह है..
यह अलग विषय है कि रामनरेश त्रिपाठी जी ने भोजपुरी के अतिरिक्त खड़ी, अवधी, ब्रज, बैसवाड़ी में भी लोकगीतों का सृजन किया है.
पंडित कृष्णदेव उपाध्याय जी ने भोजपुर, बलिया प्रदेशों में गाँव गाँव घूमकर ग्राम्य गीतों का संग्रह 'भोजपुरी ग्रामगीत' में लगभग 271 ग्राम्य गीतों का संग्रह किया है.. जिसमें.. सोहर, खेलना, जनेऊ, विवाह, वैवाहिक परिहास, गंवना, जांत, छठी मइया, शीतला माता, झूमर, बारहमासा, कजली, चैता, बिरहा, भजन, आदि हैं.. इनके ग्राम लोकगीतों को जो प्रथम भाग और द्वितीय भाग.. दो भागों में बंटा है उसे तीन भागों में बांटकर देखा जा सकता है..
1. संस्कार संबंधी लोकगीत
2. ऋतु संबंधी लोकगीत
3.पर्व संबंधी लोकगीत..
इनके अंतर्गत.. सोहर, जोग, सेहला, विवाह, बहुरा, प इंडिया, गोधन, नागपंचमी, जैतसार, झूमर, कजली, बारहमासा, होलीडफ, चैता, सोहनी, रोपनी बिरहा,कंहार, गोंड, पचरा, निरगुन, देशभक्ति, पूरबी, परातीऔर भजन आदि हैं..

यह भी एक सच है कि हिंदी कवियों के अतिरिक्त श्री W.C.Archure, I. C. S ने भी 1939-41 मे श्री संकटा प्रसाद जी के साथ मिलकर 'बिहार उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी,,पटना' की पत्रिका में भोजपुरी, अवधी के अतिरिक्त छोटानागपुर की विभिन्न जातियों के लोकगीतों का संग्रह और संपादन किया.

जब देशभक्ति की बात चली तो लोकगीतों के कवि कुल भी पीछे नहीँ रहे..
जब प्रथम विश्वयुद्ध 1914 में शुरू हुआ तो बलिया जिले के दयाछपरा ग्राम निवासी श्री पंडित दूधनाथ उपाध्याय की लेखनी कायरों के हृदय में वीर रस का संचार करने के लिए उठ खड़ी हुई-
" हमनी का सब केहु बाम्हन छतिरि होके, रन में चलबि
नाहि तनिको डेराइबि.. |
अब लें चूकलीं, बड़ बाऊर कहलिहां जा, सब पुरखनि
के ना नइयां हंसाइबि... ||
जरमन दुहूट के नहट कईला
बिना अब ना मानबि,
बलु मरि मिटि जाइबि... |
सगरे मुलुक ललकार के चलबि, दूधनाथ रनसे ना पयर हटाइबि.. "
.. और इसी क्रम में छपरा के कायस्थ परिवार में जन्मे श्री रघुवीर नारायण जी की लोकगीतों में सिरमौर' "बटोहिया"
गीत को कौन भारत स्वतंत्रता प्रेमी भुला सकता है? -

"सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से मोर प्रान बसे
हिम खोह रे बटोहिया... |
एक द्वार घेरे रामा हिम
कोतवलवा से, तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया... |
गंगा जमुनवां के झगमग
पनिया से, सरजू झमकि
लहराने रे बटोहिया... ||
ब्रह्मपुत्र,पंचनद, घहरत
निसिदिन सोनभद्र मीठे स्वर
गावे रे बटोहिया... |
नानक ,कबीर दास, शंकर,
श्रीराम कृष्ण अलख के गतिया बतावे रे बटोहिया.. ||
विद्यापति, कालिदास, सूर, जयदेव कवि, तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया... ||
इसी लोकगीत को आधार बनाकर राजेन्द्र कालेज छपरा के तत्कालीन प्रिंसिपल श्री मनोरंजन प्रसाद सिन्हा जी ने 'बटोहिया' के तर्ज़ पर भारत की अंग्रेजों द्वारा की गई दुर्दशा पर 'फिरंगिया' लोकगीत की रचना की थी-

"सुंदर सुघर भूमि भारत
के रहे रामा, आजु उहै भइल मसान रे फिरंगिया.... |
अन्न, धन, जल, बल, बुद्धि सब नास भइल, कौनो के न रहल निशान रे फिरंगिया... ||
जहवां थोड़े दिन पहिले ही
होत रहे, लाखों मन गल्ला
और धान रे फिरंगिया.... |
उहवां पर आज रामा मथवा
पर हाथ धर के, बिलखि के
रोवेला किसान रे फिरंगिया... ||"

इतना ही नहीँ.. जब जालियांवाला
निर्मम हत्याकांड हुआ तो श्री मनोरंजन प्रसाद सिन्हा जी का
कवि हृदय हाहाकार बन फूट पड़ा बिहारी लोकगीत बनकर-

"आजु पंजबवा के करिके सुरतिया से, फाटेला करेजवा हमार रे फिरंगिया... |
भारत के छाति पर तोहरे के बच्चन के बहल रकतवा
के धार रे फिरंगिया... ||
दुधमुंहां लाल सब बालक
मदन सम, तड़पि तड़पि
देले जाल रे फिरंगिया.... |"
बिहारी लोकगीतों की जब बात करने बैठा हूँ.. और लोकगीत के भोजपुरी सम्राट श्री भिखारी ठाकुर जी की चर्चा न करूँ तो सब ठीक वैसे ही अधूरा लगेगा जैसे अवधी की चर्चा में श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ,ब्रज की चर्चा में श्री सूरदास जी और मैथिली की चर्चा में श्री विद्यापति जी की चर्चा का न करना...
यों तो भिखारी ठाकुर जी पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के लोकगीतों के जन कवि और नाटककार थे.. लोग बताते हैं कि वे स्कूली शिक्षा बिल्कुल प्राप्त नहीँ किए थे.. पर.. प्रत्येक दिन सुबह एक नाटक लिखकर ही मुंह धोते और उसी शाम उसे किसी न किसी मंच पर मंचित कर देते.. उनके नाटकों में उन्हीं द्वारा रचित लोकगीतों का प्रदर्शन और गायन भी होता..
अपना आत्म परिचय देते हुए उन्होंने एक जगह लिखा भी है-

"जाति के हज्जाम मोर
कुतुबपुर मोकाम, छपरा के
तीन मील दियरा में बाबुजी... |पुरुब के कोना पर गंगा
के किनारे पर, जाति पेशा बाटे बिद्या ना ही बाटे बाबुजी... ||"

इनके प्रसिद्ध नाटक "बिदेसिया" में अन्य सामाजिक मुद्दों के अतिरिक्त लोकगीत के रूप में विरह- वेदना की तीव्र अभिव्यंजना देखने को मिलती है-

" दिनवां न बीते रामा तोरी इंतजरिया में, रतिया नयनवां
ना नींद रे बिदेसिया.... |
घरि राति गइली रामा
पिछली पहरवा से, लहरे
करेजवा हमार रे बिदेसिया.... ||
अमवां मोजरि गइले लगले टिकोरवा से, दिन पर दिन पियराला रे बिदेसिया... |
एक दिन अइहैं रामा जुलुमी बयरिया से, डार पात
जइहैं नहाई रे बिदेसिया.... ||"

भिखारी जी के इस लोक गीत का मंच पर जब उनके द्वारा प्रस्तुति होती थी तो जिन भामिनियों के प्रियतम कलकत्ता.. असम ,.. बर्मा के 'पूरबिया 'देशोँ में गये होते थे वे 'आह -इह' की सिसकारियां भरने लगतीं थीं... ऐसा गहरा प्रभाव पड़ता था.. उनके लोकगीतों का बिहारी जनमानस पर...
अब आलेख ज्यादा दीर्घ और उबाऊ न हो जाए अत: सुधी पाठकों को विश्राम देने हेतु लेखनी को विराम देता हूँ.

(अवध किशोर मिश्र,
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