आपदा विपदा त्रासदी तबाही ,
जीवन संकट का होता है घर ।
प्रकृति को जब छेड़ता मानव ,
नहीं होता है उसके मन में डर ।।
आपदा होती धैर्य की परीक्षा ,
मानव कैसे कर लेता है संघर्ष ।
कौन किस पल मानव है रोता ,
कौन आपदा काट लेता सहर्ष ।।
धैर्यवान का दूसरा नाम मानव ,
कर्मपथ तजकर डिग न सके ।
वह जीवन भी जीवन कहाॅं है ,
जो आपदा से भी भींग न सके ।।
आपदा विपदा हैं पद प्रदर्शक ,
अगले पथ का दिलाता ध्यान ।
ज्ञान भटकाने का फल ही मैं ,
अब भी कर ले मानव तू ज्ञान ।।
हो जाती जब तुम्हें कुछ प्राप्ति ,
निज को तुम ऐसे खो जाते हो ।
जगे में तुम स्वप्न ऐसे हो देखते ,
जैसे गहरी नींद में सो जाते हो ।।
इसीलिए तो धरा पर मैं आता ,
जाग मानव अब भी तो तू जाग ।
नहीं जगे तो फिर तुम समझना ,
पुनः डॅंसूंगा तुम्हें मैं बनकर नाग ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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