जिन्दगी की शाम

जिन्दगी की शाम

डॉ रामकृष्ण मिश्र
जिन्दगी की शाम आती उलझनों के साथ।
किस तरह रिश्ता निभाएँ परिजनों के साथ।।
रोशनी से अँधेरे का मिलन अद्भुत है।
किन्तु यह सम्मिलन भी है मुश्किलों के साथ।।
रोशनी की क्षीणता का दर्द कटु मधु सा।
तमस का उद्वेग भी परिलक्षणों के साथ।।
परिचितों ने भी अपरिचित सा किया वाना ।
भाव -श्रद्धा, हुए विस्मृत अनुभवों के साथ।।
दुर्ग का गुंबद अगर गिरने को हो जाए।
खुले में संवेद्य चर्चा दुर्गुणों के साथ।। साथ।।
कहाँ तक कौई पतन है चाहता मन से। 
मानसिक हिंसा अकल्पित साधनों के साथ।। ।।
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