श्रीरामचरितमानस के लंका कांड में संत तुलसीदास जी ने राम-रावण युद्ध के समय रावण की मृत्यु कैसे होगी, इस सम्बन्ध में एक बहुत ही उत्कृष्ट वर्णन किया है।

श्रीरामचरितमानस के लंका कांड में संत तुलसीदास जी ने राम-रावण युद्ध के समय रावण की मृत्यु कैसे होगी, इस सम्बन्ध में एक बहुत ही उत्कृष्ट वर्णन किया है।

रावण तरह तरह से भगवान राम के साथ प्रत्यक्ष और अंतर ध्यान होकर मायावी युद्ध कर रहा है। भगवान राम उसकी हर माया को विफल कर दे रहे हैं और उसके दशो सिरों और बीसों भुजाओं को अपने बाणों से काट दे रहे हैं। बार बार काटने के बावजूद उसके सिर और भुजाएँ पुनः उग आते हैं और उसकी मृत्यु नहीं होने पा रही है। यह बात जब माता सीता को त्रिजटा के माध्यम से मालुम पड़ती है तो वह बहुत चिंतित और दुखी होती हैं। वह त्रिजटा से कहती हैं कि यह उनका दुर्भाग्य है कि रावण इस प्रकार अभी तक मर नहीं रहा है। वह त्रिजटा से पुछती हैं कि हे माता, अब आपही बताइये कि संसार को दुख देने वाला रावण कैसे मरेगा।
त्रिजटा रावण के छोटे भाई विभीषण की पुत्री थी और वह भी अपने पिता विभीषण की तरह ही भगवान भक्त थी। वह लंका में माता सीता की शुभचिंतक थी।
त्रिजटा माता सीता से कहती है कि हे राजकुमारी उसकी मृत्यु केवल सिर काटने से नहीं बल्कि उसके हृदय ( छाती) में बाण लगने से होगी। भगवान् श्री राम अभी तक उसके हृदय में बाण नहीं मार रहे हैं, इसका कारण स्वयं आप ही हैं, क्योंकि आप रावण के हृदय में वास कर रही हैं।
एहि के हृदय बस जानकी,
जानकी उर मम वास है।
मम उदर भुवन अनेक,
लागत बान सब कर नाश है।
इन पंक्तियों में भगवान् राम का कहना है कि इसके यानि रावण के हृदय में सीता बसी हुई है और सीता के हृदय में मेरा मेरा वास है। मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। और इस प्रकार अगर मैं उसके हृदय में बाण मारता हूँ तो समस्त भुवनों का नाश हो जाएगा
पुनः त्रिजटा माता सीता को समझाती और बताती है कि:-
काटत सिर होइहि बिकल
छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ,
मरिहहिं रामु सुजान।
हे माता समर भूमि में युद्ध में श्री राम द्वारा बार बार रावण का सिर और भुजाएँ काटने पर वह विकल यानि परेशान हो जाएगा और उसके हृदय से आपका ध्यान छुट जाएगा। उसी समय श्री राम अपने बाण उसके हृदय में मारेंगे, जिससे उसकी मृत्यु निश्चित रूप से हो जाएगी। इस लिए हे माता आप चिंतित न हों। इस प्रकार माता सीता को बहुत तरह से समझाकर त्रिजटा अशोक वाटिका से अपने घर चली गई। जय प्रकाश कुवंर
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