करवट पे करवट बदलती रही है,
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
करवट पे करवट बदलती रही है
न सोती न जगती मचलती रही है।
चाहे मुसीबत हो जितना भी बरपा,
आतशीं जिंदगानी धधकती रही है।
अश्कों के मख्रज गए सूख तो भी
ज्वाला है ऐसी कि जलती रही है।
हवस के दरिंदों के जुल्मों से यारब,
बगिया-ए-गुलहा उजड़ती रही है।
'हनीट्रैप' की बेरहम दिलबरी में-
फँसी मा' सूमियत तड़पती रही है।
छेद ज्वालामुखी में जो करता रहा,
देह लावों में उसकी ही जलती रही है।
जहर जिंदगी का पचाया है जिसने,
ममात मात खा उससे डरती रही है।
चाहे मुसीबत हो जितना भी बरपा,
आतशीं जिंदगानी धधकती रही है।
अश्कों के मख्रज गए सूख तो भी
ज्वाला है ऐसी कि जलती रही है।
हवस के दरिंदों के जुल्मों से यारब,
बगिया-ए-गुलहा उजड़ती रही है।
'हनीट्रैप' की बेरहम दिलबरी में-
फँसी मा' सूमियत तड़पती रही है।
छेद ज्वालामुखी में जो करता रहा,
देह लावों में उसकी ही जलती रही है।
जहर जिंदगी का पचाया है जिसने,
ममात मात खा उससे डरती रही है।
(गुलहा =गुल+हा, फारसी में 'हा 'का प्रयोग बहुवचन बनाने के लिए होता है। ममात =मृत्यु। )
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