बरसती बदरी
मनोज कुमार मिश्ररिमझिम बरस रही है बदरी खेतों में खलिहानों में
दादुर टर्राते जोर जोर से कहते आओ मैदानों में
लपक के हरिया निकला घर से लिए हल बैल साथ
तैयार खेत करना ही होगा यदि पाना बरस भर का भात
मुस्काती धनिया गाती गीत जीवन में सुर बजे उठे आज
झटपट कुछ बढ़िया आज बनालूं भात के संग आयेगा स्वाद
वहीं ठहरी मंगल की दुनिया बरसात ले आई बवाल
आज नहीं फिर काम मिलेगा शहरों की है अजब ही रीत
ठप हो जाते यहां काम ही सारे जब भी बरसा मेघ यहां
किच किच सड़क उफनती नाली टीन टप्पर पर बजता संगीत
रौरव नरक जी रहे जब से गांव छोड़ आए है शहर
खेत जोत कर हरिया लौटा खुशी गुन गुन करता है
अब बीज का कोई लगे जुगाड उधेड़ बुन में रहता है
उसकी हिरणी आज है खुश इस मौसम में साथी संग यहां
हाथों को हाथों से पकड़े नजरों को नजरों से भींच
कह डाला कितना ही उसने बिना निकले एक भी शब्द
हरिया भी है झूम रहा देख के अपनी धनिया को मस्त
मंगल को चिंता है कि भीग ना जाए कपड़े घर के सब
कल तो जाना होगा ही बाहर आखिर फाका होगा कब तक
पर ये जीवन है उसका ही ओढ़ा ज्यादा कमाने की थी धुन
नहीं जानता था कि शहर में लग जाएगी उसके सपनों में घुन
हैं यहां अकेला रोटी थापता, वहां पता नहीं होता है क्या
उसकी कजरी भी खीज रही, क्या कर बैठी उसको भेज
अब नहीं वहां वो जा सकती, नहीं यहां कर सकती मौज
छत तो टपकती यहां भी गांव में पर मिलकर कर लेगी बसर
अच्छा हुआ जो शहर ना भेजा, थोड़े कम से नहीं आएगा कहर
दोनों एक से जीवन हैं पर रंग है दोनों के कितने भिन्न
रोटी दो जून की,कसक हिया की, जीवन के रंग सभी अभिन्न
दादुर टर्राते जोर जोर से कहते आओ मैदानों में
लपक के हरिया निकला घर से लिए हल बैल साथ
तैयार खेत करना ही होगा यदि पाना बरस भर का भात
मुस्काती धनिया गाती गीत जीवन में सुर बजे उठे आज
झटपट कुछ बढ़िया आज बनालूं भात के संग आयेगा स्वाद
वहीं ठहरी मंगल की दुनिया बरसात ले आई बवाल
आज नहीं फिर काम मिलेगा शहरों की है अजब ही रीत
ठप हो जाते यहां काम ही सारे जब भी बरसा मेघ यहां
किच किच सड़क उफनती नाली टीन टप्पर पर बजता संगीत
रौरव नरक जी रहे जब से गांव छोड़ आए है शहर
खेत जोत कर हरिया लौटा खुशी गुन गुन करता है
अब बीज का कोई लगे जुगाड उधेड़ बुन में रहता है
उसकी हिरणी आज है खुश इस मौसम में साथी संग यहां
हाथों को हाथों से पकड़े नजरों को नजरों से भींच
कह डाला कितना ही उसने बिना निकले एक भी शब्द
हरिया भी है झूम रहा देख के अपनी धनिया को मस्त
मंगल को चिंता है कि भीग ना जाए कपड़े घर के सब
कल तो जाना होगा ही बाहर आखिर फाका होगा कब तक
पर ये जीवन है उसका ही ओढ़ा ज्यादा कमाने की थी धुन
नहीं जानता था कि शहर में लग जाएगी उसके सपनों में घुन
हैं यहां अकेला रोटी थापता, वहां पता नहीं होता है क्या
उसकी कजरी भी खीज रही, क्या कर बैठी उसको भेज
अब नहीं वहां वो जा सकती, नहीं यहां कर सकती मौज
छत तो टपकती यहां भी गांव में पर मिलकर कर लेगी बसर
अच्छा हुआ जो शहर ना भेजा, थोड़े कम से नहीं आएगा कहर
दोनों एक से जीवन हैं पर रंग है दोनों के कितने भिन्न
रोटी दो जून की,कसक हिया की, जीवन के रंग सभी अभिन्न
- मनोज कुमार मिश्र
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