भिखारी ठाकुर ( भोजपुरी का शेक्सपियर )

भिखारी ठाकुर ( भोजपुरी का शेक्सपियर )

अभी हाल ही में लगभग महीने दिन पहले स्वर्गीय भिखारी ठाकुर की चौवनवीं पुण्यतिथि गुजरी है, अतः यह आलेख मैं उनको श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पित करता हूँ। भिखारी ठाकुर का जन्म सारण जिले के कुतुबपुर ( दियारा ) गाँव में एक नाई ( ठाकुर ) परिवार में सन् १८८७ के १८ दिसम्बर को हुआ था। सारण जिला एक भोजपुरी भाषी क्षेत्र है। बड़ा होने पर वे धनोपार्जन के लिए अपना गाँव छोड़ कर खड़गपुर चले गए और वहाँ अच्छा पैसा कमाया। पर उनका मन वहाँ ज्यादा दिन नहीं टिका और वे पुनः अपने गाँव लौट आये। गाँव आकर उन्होंने एक नृत्य मंडली बनाई और राम लीला खेलने लगे। उन दिनों समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थी, जिसने उनका ध्यान आकृष्ट किया। अतः वे सामाजिक कार्यों से भी जुड़ गए। अब वे रामलीला के अलावा नाटक खेलना, गीत लिखना, पुस्तक लिखना आरम्भ कर दिए। उनके सारे कृत्य बहुत ही सरल और भोजपुरी भाषा में होते थे, जो आसानी से जनमानस में पहुँच जाते थे।
वैसे तो संत कबीर को भोजपुरी भाषा का प्रथम कवि माना जाता है, लेकिन जब भोजपुरी साहित्य का आधुनिक युग सन् १८५० से शुरू हुआ तब से भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का जन्मदाता कहा जाता है। इस श्रेणी में राहुल सांकृत्यायन और महेन्द्र मिसिर का नाम भी आता है। भिखारी ठाकुर अपनी नृत्य मंडली के साथ घुम घुम कर गाँवो तथा शहरों में अपने नाटकों का मंचन करते थे। उनके नाटक समाज में फैली कुरीतियों को आइना दिखाने का काम करते थे। उनके नाटक घुमते और गावों तथा ग्रामीण समाज के चारों तरफ विकसित हुए। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी भाषा और संस्कृति का झंडा वाहक माना जाता है।
भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनायी। वे एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्यनिर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। वे एक कुशल लोकनर्तक थे। उनका पहनावा धोती, कुर्ता, मिरज‌ई, सिर पर साफा और पैर में जूता था।
भिखारी ठाकुर को अपने नाटकों के संदेशों को लोगों तक पहुँचाने के लिए महिला कलाकारों की जरूरत पड़ती थी। लेकिन उस जमाने में महिलाओं को घूंघट से निकालकर स्टेज पर लाना मुश्किल था। इसलिए उन्होंने विकल्प के रूप में पुरुषों को महिलाओं की तरह वेशभूषा पहनाकर काम लिया। उस जमाने में पुरुषों को साड़ी पहनाकर उनसे अभिनय करवाया। इसे लौंडा नाच कहा गया। अतः भिखारी ठाकुर को "लौंडा नाच " का जनक माना जाता है, जो आज भी प्रचलित है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर अनेक नाटक लिखे तथा उनका मंचन किया, जिसमें बेटी वियोग अथवा बेटी बेचवा, विदेशिया और विधवा विलाप आदि मुख्य हैं। उनके कला की खासियत यह थी कि कलाकारों का पुरूष होकर स्त्री के वेश में सफलता के साथ कला प्रस्तुत करना।
अपने देश में ही नहीं, उनकी नृत्य मंडली अपनी नाटक की प्रस्तुति के लिए विदेशों में मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम, म्यांमार, युगांडा आदि देशों में भी जाती थी। अपने देश में पटना, कलकत्ता, बनारस आदि अनेक छोटे बड़े शहरों में जहाँ प्रवासी मजदूर और गरीब श्रमिक अपनी आजीविका की खोज में गये हुए थे, वहाँ भिखारी ठाकुर के नाटक खुब प्रसिद्ध हुए। उनकी सभी नाटकों और रचनाओं को यहाँ प्रस्तुत करना बहुत मुश्किल है, किन्तु उनकी सरल भाषा में मार्मिक रचना जो उस समय हमारे भारतीय समाज में कोढ़ जैसा फैली हुई थी, एक
"बेटी वियोग या बेटी बेचवा " नामक नाटक के एक हृदय बेदी
गीत के कुछ अंश आप सबों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
उस समय समाज में फैली कुरीतियों की श्रेणी में बाल- बृद्ध विवाह एक था। पैसे की कमी के कारण लोग अपनी छोटी छोटी बेटियों को या तो बेंच देते थे या फिर काफी बड़े उम्र के लोगों से उसकी शादी कर देते थे। ऐसे ही एक बेटी को उसके बाप ने उससे काफी बड़े उम्र के आदमी के हाथ पैसे लेकर बेंच दिया था। उसकी बेटी रो रो कर अपने बाप से अपना दुखड़ा कह रही है :-
रूपया गिनाई लेहल, पगहा धराई दिहल।
चेरिया के छेरिया, बनवल हो बाबूजी।।
के अइसन जादू कइल, पागल तोहार मति भ‌इल।
नटी काटी बेटी के भसवल हो बाबूजी।।
बुढ़वा से शादी भ‌इल, सुखवा सोहाग ग‌इल।
घर पर हर चलववल, हो बाबूजी।।
हंसत बा लोग गंइयां के, सूरत देखी स‌इयां के।
खाई के जहर मर जाइब, हम ए बाबूजी।।
खुशी से होता बिदाई, पथल छाती क‌इलस माई।
दुधवा पिला के बिसराई दिहली, हो बाबूजी।।
साफ क‌इके आंगन गली, छीपा लोटा जुठ मली।
बन के रहनी माई के टहलनी, हो बाबूजी।।
रोवत बानी सिर धुनी, इहे हमार अरज सुनी।
बेटी मत बेंचें दीह केहू के, हो बाबूजी।।
इन पंक्तियों में बिकी हुई बेटी अपने बाप से कह रही है कि आपने रूपया गिना लिया और एक बुढ़े के हाथ मेरा जानवर जैसा रस्सी पकड़ा दिया। हम तो माई का नौकरानी जैसे वर्तन साफ करते थे , आंगन गली साफ करते थे। उन्होंने हमें दुध पिलाया लेकिन आज उनका भी छाती पत्थर का हो गया है। लगता है किसी ने बाबूजी पर जादू टोना कर दिया है। मेरे पति को देख कर गाँव के लोग हंस रहे हैं। इस प्रकार करूण क्रन्दन जो भिखारी ठाकुर ने सरल भोजपुरी भाषा में लिखा है उससे यह आलेख लिखते समय स्वयं मुझे भी रूलाई आ जा रही है, क्योंकि मैं स्वयं एक भोजपुरी भाषी हूँ और गीत में वर्णित शब्दों और उनके भावों को समझता हूँ । यह है भिखारी ठाकुर की खासियत।
एक बार धनबाद कोयलांचल के मजदूरों के बीच भिखारी ठाकुर ने इस बेटी बेचवा नाटक का मंचन किया था। इसका असर मजदूरों पर ऐसा हुआ कि उन्होंने सामूहिक रूप से बेटी नहीं बेंचने और ज्यादा उम्र के मर्द से बेटी का ब्याह नहीं करने का संकल्प लें लिया।
ऐसे नहीं भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है, बल्कि उनके गुणों के कारण कहा जाता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ही भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर और अनगढ़ हीरा का नाम दिया था।
अंग्रेजी हुकूमत और बिहार सरकार ने उन्हें रायबहादुर या राय साहब के उपनाम से नवाजा था। इतना ही नहीं श्री जगदीश चन्द्र माथुर ने उन्हें "भरत मुनि " परंपरा का कलाकार के टाईटल से नवाजा था।
भोजपुरी के शेक्सपियर एवं बिहार तथा देश के इस महान विभूति का स्वर्गवास १० जुलाई सन् १९७१ को हो गया था। 
 जय प्रकाश कुवंर
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