बलात्कार की विषैली दुर्गन्ध से परेशान है समाज

बलात्कार की विषैली दुर्गन्ध से परेशान है समाज

मार्कण्डेय शारदेय
आज बलात्कार-जैसी घृणित घटनाएँ पूरे जोर पर हैं।जहाँ देखो, वहीं।जहाँ सुनो, वहीं।युवतियाँ तो इसका शिकार हो ही रही हैं, अबोध बच्चियों तक पर यह राक्षस रहम नहीं करता।आश्चर्य है कि शासन-प्रशासन के दण्ड-विधानों से भी खौफ नहीं।आचरण की ऐसी गिरावट कि नीति-नियन्ता, शिक्षा-संस्कारक एवं तथाकथित धर्मगुरु भी इस कुकृत्य के संरक्षक एवं उपभोक्ता हो गए हैं। औरों की क्या कहें,अब पिता भी भरोसेमन्द नहीं,भाई भी विश्वासपात्र नहीं।गजब की हवा चली है।एक ओर बेटियों को गर्भ में ही मारने की पहल है तो दूसरी ओर बची बच्चियाँ ऐसे मारी जा रहीं।
आखिर इस कुकर्म की खेती होती ही क्यों है? आखिर इसकी बुआई कैसे हो रही है? इस फसल की वीमा योजना कौन चला रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की जरूरत है, क्योंकि बिना जड़ की बीमारी के इलाज के निदान सम्भव नहीं।मेरी समझ में टी.वी सीरियलों, फिल्मों और नेट के माध्यम से अपसंस्कृति के साथ-साथ हैवानियत की धड़ल्ले से खेती हो रही है।बच्चों और बच्चियों के मन-मिजाज बिगाड़ने की एक से एक करतूतें परोसी जा रही हैं।जब अल्प विकसित उम्रवालों के लिए उद्दीपक हो सकता है तो विकसित व पूर्ण विकसित युवाओं, प्रौढ़ों पर क्यों नहीं कारगर होगा? पुनः संलिप्त व्यक्तियों पर जब कानूनी शिकंजा चढ़ने लगता है तो भाई-भतीजावाद, जाति-पार्टीवाद कवच बनकर तैयार हो जाता है।कोई-कोई नीति-नियन्ता व कानून के रखवाला भी इस कारनामे में संलिप्त पाया जाता है।अपनी ताकत तथा राजनीतिक दाँव-पेंच से बचता भी जाता है।बेदाग निकल भी जाता है।
हाँ; एक बात और कि हमारे पारिवारिक तथा सामाजिक संगठन कमजोर पड़ गए हैं।हम और हमारे बच्चों तक सिमटता परिवार और हमारे खास दोस्तों तक घिरता समाज ने संकीर्णता को बढ़ावा देकर पारिवारिकता एवं सामाजिकता की पकड़ को एकदम कमजोर कर रखा है।अब घर के चाचा चाचा नहीं रहे तो मुहल्ले के चाचा की क्या बिसात! पहले मेरी बेटी मेरे भाइयों की भी बेटी थी, मेरे हमउम्रवाले मुहल्ले-टोले, गाँव-नगरवालों की भी बेटी थी।वह केवल मेरे बेटों की ही बहन नहीं, बल्कि मेरे भतीजों और उनके हमउम्रों की भी बहन थी।शिक्षकों की उम्र कुछ भी हो, पर उनका स्थान पिता का ही था, दोस्त का नहीं।अब अदब नहीं रहा।दोस्ती के नाम पर इतना खुलापन, नंगापन कि लाज-शर्म घोलकर पी गए हैं सब।फैशन व आधुनिकतावाद ने भी शालीनता की गर्दन मरोड़ कर रख दी है।क्या धर्म, क्या संस्कार विचारणीय नहीं।भोगवाद का उत्थान खाओ, पियो और मौज उड़ाओ का गुरुमन्त्र बाँट रहा है।
भोजन, शयन, भय और मैथुन; ये चारों मनुष्य और पशुओं में भी समान ही होते हैं।परन्तु; मनुष्य में धर्म नामक एक अतिरिक्त भाव होता है।वह गलत-सही का निर्णय कर खाता, सोता, डरता और सहवास करता है।खासकर सहवास का धर्म सर्वोपरि है।इसी कारण उसने वैवाहिक व्यवस्था बनाई, विधि-निषेध बनाए।पशुओं में माँ-बहन आदि का भेद-भाव नहीं रहता।पर; धर्मबन्धन ने सामाजिकता का व स्वर्ग-नरक का डर पैदा कर लीक न छोड़ने की हिदायत दी है।
हमारे यहाँ कभी स्त्रियाँ असूर्यम्पश्या रहीं।परन्तु; सामाजिक एवं शैक्षणिक विकास ने गैरबराबरी से बराबरी का रास्ता दिखाकर उत्थान किया है। फिर भी परपुरुष एवं परस्त्री परस्पर वैसा व्यवहार नहीं कर सकते, जो सामाजिकता की दृष्टि से गलत है।मनु ने शासकवर्ग को स्पष्ट निर्देश दिया है –
‘परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान् नृन् महीपतिः।
उद्वेजन-करैः दण्डैः छिन्नयित्वा प्रवासयेत्’।।(मनुस्मतिः8.352)
अर्थात्; राजा को चाहिए कि पराई स्त्रियों से विषय करनेवाले मनुष्यों को अनेक भाँति के उद्वेग-जनक दण्डों से नाक, कान आदि कटवाकर देश से निकाल दे।
मनु का निर्देश है कि जो पहले से निर्दोष हो, पर किसी कारणवश एकान्त में परस्त्री के साथ के साथ बातचीत करते पाया गया हो तो दण्डनीय नहीं है (8.355)।परन्तु; पहले से ही जिसकी कामाचार प्रवृत्ति हो और एकान्त में किसी नारी के साथ बातचीत करते पाया जाए तो वह दण्डनीय है (8.354)।तीर्थ, वन-वाटिका व नदीसंगम में जो पराई स्त्री से बातचीत करे (356), पराई नारी को उपहार दे, हँसी, आलिंगन करे, गहने-कपड़े छुए या एक ही शय्या पर सोए; उसपर स्त्री-संग्रहण का अभियोग लगना चाहिए (357)।हाँ; आपसी सहमति में कम दोषपूर्ण और स्त्री के विरुद्ध होने पर वह व्यक्ति वधदण्ड के योग्य है; ऐसा भी मनुमत है।
दरअसल; किसी भी धर्म व पन्थ में बलात्कार-जैसे घिनौने कृत्यों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता है।धर्म तो आदमी में आदमीयत बोने का पहला काम करता है।जब आदमीयत विकसित हो जाएगी, तभी ईश्वरीय चिन्तन के दरवाजे खुल सकते हैं।इसलिए धर्म अनैतिक कार्यों से दूर रहनेवालों को सदाचारी, साधु व सज्जन माना है-
‘साधवः क्षीणदोषाः स्युः सच्छन्दः साधुवाचकः।
तेषाम् आचरणं यत्तु स सदाचार उच्यते’।।(विष्णुपुराण-3.11.3)
भौगोलिकता, क्षेत्रीयता व पारिवारिकता के कारण कुछ परम्पराएँ भिन्न हो सकती हैं, पर सदाचरण की परिधि में तो पशुत्व व बहसीपन कतई नहीं आ सकता।
यह नहीं कहा जा सकता कि पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिबन्धों के युग में बलात्कार की घटनाएँ नहीं थीं।अच्छाइयाँ और बुराइयाँ साथ-साथ जनम लेती हैं।जब अच्छाइयाँ मजबूत रहती हैं तो बुराइयाँ कमजोर और जब बुराइयाँ मजबूत होंगी तो अच्छाइयाँ कमजोर पड़ेंगी ही। जब-जब दानवों का बल बढ़ा, तब-तब वे केवल धन-दौलत, राज-पाट तक ही नहीं रहे; भोग की भूख के कारण देवियों को भोग्या समझने लगे।देवों के चिन्तन और देवियों के प्रतिकार से ही उन्हें मात मिली।
सज्जनों का बल दूसरों के रक्षार्थ होता है तो दुर्जनों का बल लोगों को पीडित करने के लिए। बलात्कार दुष्ट वृत्ति का मुख्यतम निदर्शन है।एक ऐसी गन्दगी है, जिसकी बदबू रहना मुश्किल कर देनेवाली है।इसलिए इसका सफाया निहायत जरूरी है।हमारे प्राचीन नीति-निर्धारकों, स्मृतिकारों, धर्माचार्यों को भी कहीं-न-कहीं से इसकी बू मिली थी।इसलिए उन्होंने भी इसपर नकेल कसने के लिए कठोर-से-कठोर दण्डविधान एवं प्रायश्चित्त प्रस्तावित किया था।
स्त्रीसंग्रहण का तात्पर्य परस्त्री सम्बन्ध है।बल से, धोखे से व काम-पिपासा से किया गया ऐसा कुकर्म पापमूल है।वस्तुतः स्त्री की इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती अपनी प्यास बुझाना ही मुख्यतः बलात्कार है।परन्तु; मानसिक रूप से अस्वस्थ किसी महिला के साथ भी ऐसा करना इसी श्रेणी में आता है।बहला-फुसलाकर तथा नशीला पदार्थ खिला-पिलाकर व डरा-धमकाकर किया गया सम्भोग दूसरी श्रेणी का इसलिए माना गया है कि विवशता के कारण वह स्त्री विशेष प्रतिकार नहीं कर पाती है।तीसरे प्रकार में इशारे व हाव-भाव से, दूसरों से बुलवाकर, प्रलोभन देकर संलिप्त होना है।इसमें कुछ हद तक लाचारी से ही सही स्त्री भी अपनी भागीदारी निभाती है।परन्तु; नियम-विरुद्ध सम्बन्ध होने से यह भी कुकृत्य, पापकर्म है।
बलात्कार साहस का ही प्रतिरूप है।जबरन मैथुन पर हमारे स्मृतिकारों, ऋषियों ने कड़े-से-कड़े दण्ड का प्रावधान किया है।बृहस्पति-स्मृति के अनुसार अव्यभिचारिणी के साथ बलात् सम्भोग करनेवाले का सम्पूर्ण धन छीन लेना चाहिए और गुप्तांग काटकर गधे पर घुमाना चाहिए।वह मृत्युदण्ड तक की भी बात करते हैं।कात्यायन भी लगभग यही कहते हैं।वह बस्ती से बाहर भी करने का निर्देश करते हैं-
‘सहमायः कामयते धनं तस्याखिलं हरेत्।
उत्कृत्य लिंग-वृषणौ भ्रामयेद् गर्दभेन तु’।।(बृहस्पति-स्मृतिः1.24.13)
दण्डविधान राजकीय अधिकार क्षेत्र का है, इसलिए कुकृत्य करनेवालों पर कड़ा कानून होना ही चाहिए।पुनः पीडित पक्ष के लोग या समाजवाले कहीं-कहीं आपा खोकर स्वयं दण्डित करने बढ़ जाते हैं; यह भी उचित नहीं।ऐसा होना अराजक स्थिति का परिचायक हो जाएगा।फिर भी हमारे यहाँ की दण्डीय प्रक्रिया इतनी धीमी गति में चलती है कि कभी-कभी तो दण्डनीय व्यक्ति बिना दण्ड पाए ही पूरा जीवन भोग लेता है।कुछ तो पैसे और दबंगई से बेदाग ही रह जाते हैं।ऐसे में आक्रोश स्वाभाविक है।तो भी जब हम ही न्यायकर्ता व दण्डदाता बन जाएँगे तो मत्स्य-न्याय को बढ़ावा मिल जाएगा।ऐसे में हर बलवान कमजोर को निगलता चला जाएगा।यही तो जंगलराज है।
इसलिए सरकारी तन्त्र को मजबूत, निष्पक्ष, भरोसेमन्द तथा सद्योनिर्णायक होना ही होगा।जब तक कुकर्मियों को कड़ा दण्ड शीघ्रातिशीघ्र नहीं दिया जाएगा, भय पैदा नहीं किया जाएगा, तब तक सामाजिक वेग को रोक पाना कठिन रहेगा।
(लेखक की पुस्तक ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| 
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