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"मणिकर्णिका का दर्पण"

मणिकर्णिका का दर्पण

मणिकर्णिका घाट सी हो गई जिंदगी,
जो आता है जला कर चला जाता है।
हर पल एक नया अध्याय शुरू होता है,
और फिर जलकर राख हो जाता है।

जीवन की नदी में बहते हुए हम,
एक क्षण के लिए ही ठहर पाते हैं।
फिर बह निकलते हैं इस संसार से,
जैसे पत्ते झड़कर बिखर जाते हैं।

रिश्ते, नाते, सब कुछ जलता है,
यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं रहता है।
सिर्फ यादें ही रह जाती हैं,
जो दिल में हमेशा धधकती रहती हैं।

मृत्यु का डर है मन में,
परंतु जीवन का जश्न भी मनाना है।
हर पल को जीना है,
और कुछ नया सीखना है।

मणिकर्णिका घाट का यह दर्पण,
हमें सिखाता है जीने का मंत्र।
काशी का प्रसाद समझ इसको पीना है,
हर पल को खूबसूरती से जीना है।

. स्वरचित, 
मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
 (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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