शायद शरद् आया द्वार।।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
उफनाती नदियों का जोश हो गया ढीला
थमा -थमा - सा बादल राग।
पूरब की ललछौंही किरणों का मधुर स्नेह
वसुधा को दे रहा सुहाग।
रोमांचित अंग- अंग पुलकन भरती दूर्वा
कण- कण में जगा रही प्यार।।
मर्यादाएँ सारी नहा रहीं गंगा -तट
पूजन की थालियाँ सजीं,
भोर- भोर शोर हुआ कलरव के स्वर जागे
मंदिर की घंटियाँ बजीं।
भीगी -भीगी गातें लीन हुई भजनों में ं झरने लगे हरसिंगार।।
तरु की शाखाओं पर चाँदनी उतर आई
नीरव सब घोसले अभीत,
रुनझुन पायल कंपित वाँचने लगेगी फिर
परदेशी प्रीतम के गीत।
आँगन- आँगंन पूरे स्वस्ति - अल्पना मंगल आँचल की रीत फिर सँवार। ।।
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