छंदों के द्वंद ने मुझे रोक दिया
अलंकारों की बेड़ियों ने बांधाराग रागनियों ने गाने नही दिया
कौआ के कांव से खुली जब नींद
मैंने उन्मुक्त हो कर लिखा
उसमें थी मेरी भावना की नदी
मचल मचल कर डुबोती रही
पटकती रही मुझे अपने अंक में
सहलाती रही मेरी घाव को
मातृ रूप में
लिखने के लिए नही नही लिखा
देखने के लिए नही देखा
इस जगत के जंजाल को
उस नदी के प्रवाह में
जिसमें मेरे साथ मेरे आसपास
सब बह रहे थे
एक साथ अनायास
समुदाय ,राजनीति ,महत्वाकांक्षा
के अनगिनत वट वृक्ष
अश्पृश्यता, स्वच्छता, कूड़ा करकट
जीवन और मृत्यु के रूप में
भौतिक शरीर
और मेरा आध्यात्मिक सोंच
सबके सब नदी के उस
उदात्त व्यक्तित्व के प्रवाह में
मैंने सोंचा अब सोंचना नही
बैठ कर नदी के घाट
लगाई छलांग और डूब गया नदी में
फिर जो हुआ वह
अकल्पनीय था वर्णनातीत था
आओ विलम्ब न करो
आपको भी
आपके अंदर की नदी
पुकार रही है
आपको डुबोने के लिए।
अरविन्द कुमार पाठक "निष्काम"
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