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संबंधों की सीढ़ियां

संबंधों की सीढ़ियां

जय प्रकाश कुवंर
इस प्रकरण में मोबाईल पर दिखे एक लेख ने मुझे काफी प्रभावित किया। इसलिए इस विषय पर अपना कुछ मंतब्य देने की ईच्छा हुई। वास्तव में संबंध एक ऐसा शब्द है जिसके आधार पर ही दुनिया का निर्माण हुआ है और यह दुनिया टीकी हुई है। अगर संबंध न होता तो इस दुनिया का अस्तित्व ही नहीं होता। इस श्रेणी में पहला है सामाजिक संबंध और उसके बाद आता है रक्त संबंध। हम यहाँ मानवीय स्त्री पुरुष के संबंध की चर्चा कर रहे हैं।सामाजिक संबंध के आधार पर ही रक्त संबंध स्थापित होता है। समाज से ही स्त्री अथवा पुरुष किसी को देखकर तथा चुनकर उसका वरण करता है और वहां से उत्पन्न हुआ उसका रक्त संबंध ही आगे उसका वंशज या अपना कहलाता है। यह कहना यहाँ श्रेयस्कर होगा कि युगों युगों से हमारे समाज में स्त्री तथा पुरुष का वरण कुछ स्वेच्छा से प्रेम के आधार पर, तो कुछ स्वयंवर में जीत कर एवं कुछ माता पिता के मर्जी से ही होता चला आ रहा है। प्रेम संबंध सहित बाकी के स्त्री पुरुष के संबंध ढोये जाते हैं, ताकि परिवार टुटने न पाये। इसमें सबसे अहम है प्रेम संबंध जिसे ढोया नहीं निभाना पड़ता है। इसी लिए कहा जाता है कि प्रेम संबंधों की कुल पांच सीढ़ियां होती हैं। वो हैं :-
1. देखना, मुस्कराना
2. अच्छा लगना ,वार्ता करना
3. चाहना
4. पाना
5 . निभाना
जब हम किसी को देखते हैं तो हमें अच्छा लगता है।अगर किसी को देखकर हमारे चेहरे पर मुस्कान नहीं आती है तथा दुसरी ओर से भी मुस्कुराहट एवं कोई वार्ता के पहल का उत्तर नहीं मिलता है, तो फिर संबंध आगे नहीं बढ़ता है और वहीं खत्म हो जाता है। अगर देखने तथा वार्ता के क्रम में दुसरा अच्छा लगता है, तो हमारे मन में उसके लिए चाहत पैदा होती है। अब अगर उसके लिए चाहत पैदा हुआ तो फिर हमें उसको पाने की इच्छा होती है। और अगर दोनों का मन मिलता है तो अंततः हम उसे पा भी लेते हैं। ये चार सीढ़ियां हमारी स्वाभाविक मानवीय भावनाएं होती हैं और हर कोई इसे महसूस करता है। परंतु ये चारों भावनाएं स्थायी नहीं होती हैं। इनमें समय के साथ बदलाव भी आ जाता है। लेकिन मन की भावनाओं में समय के अनुसार अगर कोई बदलाव नहीं हुआ और स्थिति चौथै सीढ़ी तक पहुँच गयी एवं हमनें एक दूसरे को पा भी लिया, तो पांचवीं सीढ़ी , यानि निभाना एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया है। संबंध को निभाना एक सतत प्रक्रिया है। संबंध निभाने के लिए काफी धैर्य, त्याग, समर्पण और समझदारी की आवश्यकता होती है। निभाना का मतलब संबंध को बनाए रखने के साथ उसमें मधुरता एवं एक दूसरे के लिए समर्पित रहने की भावना का होना जरूरी है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है मानव जीवन में। ऐसा कोई रिश्ता नहीं है जिसमें भला बुरा, उतार चढ़ाव न होता हो। लेकिन ऐसे स्थित में त्याग क्षमा और विश्वास ही संबंधों को मजबूत बनाता है और निभाने की क्षमता प्रदान करता है। 
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