स्वयं को ढूंढने की यात्रा
व्यस्त हैं सब, धरा पर दौड़ लगाते,दूसरों की कमियों को ही निभाते।
नज़रें हैं अंदर की ओर मुड़ी नहीं,
खुद को पहचानने की जद्दोजहद नहीं।
क्यों भूल जाते हैं अपना अस्तित्व,
दूसरों की नकल में खो जाते हैं अक्सर।
दौड़ लगती है मानो किसी मंजिल की,
पर मंजिल क्या है, कोई जानता नहीं।
शब्दों की बाढ़ में बह जाते हैं सब,
नफरत के बीज बो जाते हैं सब।
क्यों नहीं समझते इस सच्चाई को,
खुद को बदलें तो बदलेगी दुनिया।
इतनी शिद्दत से अगर खुद को पढ़ते,
तो खुदा हो जाते, ये बात सच है।
अंदर की आवाज़ को सुनें,
खुद को ढूंढने की यात्रा पर चलें।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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