देश अपना , गगन का सुख ,मातृवत धरती
डॉ रामकृष्ण मिश्र
देश अपना , गगन का सुख ,मातृवत धरतीरास - सी उत्फुल्लता बस क्या नहीं अपना।।
उम्र के सोपान पर रखते चरण पहला
स्नेह के शीतल कलश -जल से प्रथम नहला
वत्सला बन गयी नारी खिल गये तन मन
बन गये संबंध के घर भर गया अँगना।।
फिर कदम बढते गये, बढती गयी ईहा
तब नहीं था बोध पर का और भी स्व का
झूठ-सच का भेद हित-अनहित अपरिचित था
समय और समाज ने कालिख किया रंगना।।
नीति ,भाषा , भाव, रस सब दृश्य से देखे
वेदना - परिवेदना संदेश के लेखे
रूठने, जिद के शिखर तक पहुँच कर लौटे
छंद सारे जटिल थे पर पड़ गया बँधना।।
बेड़ियों में पाँव हैं मन भी स्वतंत्र नहीं
हृदय है, कारुण्य रस का स्नेह यंत्र नहीं
कास सा खिल , फूटना चाहा विषम जल मेंबस्तियों का दर्द कंधे ,चाह है बचना।।
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