Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

देवपूजा की क्रिया बाएं से दाएं तथा वही क्रिया श्राद्ध में दाएं से बाएं क्यों करना चाहिए ?

देवपूजा की क्रिया बाएं से दाएं तथा वही क्रिया श्राद्ध में दाएं से बाएं क्यों करना चाहिए ?

‘देवकर्म में सर्व विधियां देवता का आवाहन करने के लिए होती हैं, जबकि पितृकर्म में प्रत्येक विधि पितरों का आवाहन करने के लिए की जाती है । इस दृष्टि से दर्भ की सहायता से उस विशिष्ट वस्तु पर जल छिडककर वैसा संकल्प किया जाता है । उन विशिष्ट तत्त्वों की तरंगों की गति के लिए पूरक दिशा में कर्म करने से, उसकी फलप्राप्ति अधिक होती है । देवकर्म करते समय देवताओं का आवाहन करने पर, ब्रह्मांड में कार्यरत उन विशिष्ट देवताओं की तरंगों का देवयान मार्ग से पृथ्वीकक्षा में आगमन होता है । सात्त्विक चैतन्यमय तरंगों का भ्रमण सदा दक्षिणावर्त दिशा में, अर्थात सीधी दिशा में होने के कारण देवकर्म करते समय सदा जल की सहायता से सीधा मंडल बनाकर अथवा सीधी परिक्रमा कर उन विशिष्ट देवताओं की तरंगों का आवाहनात्मक स्वागत किया जाता है । इसे ही ‘प्रदक्षिण कर्म’ कहते हैं । इसके विपरीत पितृयान से पृथ्वी की कक्षा में आगमन करनेवाले पितर, वामवर्त दिशा में (घडी की सुइयों की विपरीत दिशा में) कार्यरत रज-तमात्मक तरंगों की सहायता से श्राद्धस्थल पर आगमन करते हैं । इसलिए विशिष्ट पिंड पर अथवा पितरों से संबंधित सामग्री पर विपरीत दिशा में जल का मंडल बनाकर अथवा जल छिडक कर और संकल्प कर, विशिष्ट दिशा के लिए पूरक कर्म किया जाता है । इसे ही ‘अप्रदक्षिण कर्म’ कहते हैं ।’

श्राद्ध के समय ब्राह्मण देवस्थान के पूर्वाभिमुख एवं पितृस्थान के उत्तराभिमुख बैठने का अध्यात्मशास्त्रीय आधार क्या है ?
श्राद्ध के समय ब्राह्मण देवस्थान के पूर्वाभिमुख बैठने से तथा पितृस्थान के उत्तराभिमुख बैठने से श्राद्ध की फलोत्पत्ति अधिक होती है ।

ज्ञानतरंगें, इच्छातरंगें एवं क्रियातरंगें ब्रह्मांड की तीन प्रमुख तरंगें हैं । ‘पूर्व-पश्‍चिम दिशा में क्रियातरंगें घनीभूत होती हैं । श्राद्ध के मंत्रोच्चारण से इन तरंगों को गति प्राप्त होती है । इस दिशा की ओर मुख कर बैठनेवाले ब्राह्मणों द्वारा किया गया कर्म उस विशिष्ट दिशा की ओर आकर्षित देवताओं की सात्त्विक तरंगों के कारण शीघ्र ही संकल्प सिद्ध होने से फलोत्पत्ति भी अधिक होती है ।

पृथ्वीकक्षा में पितरों के आगमन के लिए यमतरंगों का प्रवाह पोषक होता है । अन्य दिशाओं की अपेक्षा उत्तर-दक्षिण दिशा में तिर्यक तरंगें, तथा यमतरंगों का संक्रमण अधिक होने के कारण पितृस्थान पर बैठे ब्राह्मणों को दिया गया दान अल्पावधि में पूर्णत्व प्राप्त करता है ।

इसलिए देवस्थान के ब्राह्मण पूर्वाभिमुख एवं पितृस्थान के ब्राह्मण उत्तराभिमुख बैठते हैं । इस प्रकार उस विशिष्ट दिशा में घनीभूत हुई तरंगों का उस विशिष्ट कर्म से अधिकाधिक फलप्राप्ति हेतु उपयोग किया जाता है ।’

श्राद्ध के लिए एक ही ब्राह्मण मिलने पर उसे पितृस्थान पर बिठाकर देवस्थान पर शालग्राम अथवा बालकृष्ण क्यों रखें ?
‘मारक प्रकार की गोल तरंगें प्रक्षेपित करना शालग्राम की एवं क्रियादर्शक गोल तरंगें प्रक्षेपित करना बालकृष्ण मूर्ति की विशेषता है । देवस्थानों में शालग्राम की स्थापना से, वहां किए जानेवाले श्राद्धादि कर्मों में अनिष्ट शक्तियां अत्यल्प बाधा डाल पाती हैं और बालकृष्णरूप की स्थापना से पितर तरंगों को आगे जाने में सहायता मिलती है । गोलाकार तरंगोें में आकर्षण शक्ति अधिक होती है । अतः किसी भी घटक को आकर्षित तथा बद्ध कर उन्हें विशिष्ट स्तर पर विघटित करने की अथवा कार्यानुसार उनके वेग में परिवर्तन कर उन्हें गति देने की क्षमता मूलतः ही वलयांकित तरंगों में अधिक होती है । इसलिए यह उस स्तर की तरंगों के प्रक्षेपण से विशिष्ट स्थान पर देवताओं की विशेषता के उपयोग का एक श्रेष्ठ उदाहरण है ।’

अधिक जानकारी हेतु पढें : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ