श्राद्ध संबंधी कुछ शास्त्रीय जानकारी
प्रश्न : प्राय: संध्या, रात्रि, संधिकाल एवं उनके निकट का समय श्राद्ध के लिए क्यों वर्जित रहता है ?
संध्याकाल, रात्रि, संधिकाल तथा उनके आस-पास के समय में वायुमंडल रज-तम से दूषित रहता है । अतः, जब लिंगदेह श्राद्धस्थल पर आते हैं, तब उनके मांत्रिकों के चंगुल में फसने की आशंका अधिक रहती है । इसलिए, उपर्युक्त कालों में श्राद्ध करना मना है ।
‘संध्याकाल, रात्रि एवं संधिकाल के निकट के समय में लिंगदेहों से संबंधित ऊर्जा-तरंगों का प्रवाह तीव्र रहता है । इसका लाभ उठाकर अनेक अनिष्ट शक्तियां इस गतिमान ऊर्जास्रोत के साथ पृथ्वी के वायुमंडल में आती हैं । इसलिए, इस काल को ‘रज-तम तरंगों का आगमनकाल’ भी कहते हैं ।’
संध्याकाल वातावरण में तिर्यक तरंगें प्रबल रहती हैं, संधिकाल में विस्फुटित तरंगें प्रबल रहती हैं तथा रात्रि के समय विस्फुटित, तिर्यक और यम तीनों प्रकार की तरंगें प्रबल रहती हैं । इसलिए, इस समय वातावरण अत्यंत ऊष्ण ऊर्जा से प्रभारित रहता है । श्राद्ध के समय जब विशिष्ट पितर के लिए संकल्प और आवाहन किया जाता है, तब उनका वासनायुक्त लिंगदेह वायुमंडल में आता है । ऐसे समय यदि वायुमंडल रज-तम कणों से प्रभारित रहेगा, तब उसमें संचार करनेवाली अनिष्ट शक्तियां, पितरों का मार्ग रोक सकती हैं । कभी-कभी तो मांत्रिक किसी पितर को अपने नियंत्रण में लेकर उनसे बुरा कर्म करवाते हैं । इससे उन्हें नरकवास भोगना पडता है । इसलिए, यथासंभव वर्जित समय में श्राद्धादि कर्म नहीं करने चाहिए । इससे पता चलता है कि हिन्दू धर्म में बताए गए कर्मों का विधिसहित पालन करना कितना महत्त्वपूर्ण है । विधि-विधान से धर्मकर्म करने पर ही इष्ट फल की प्राप्ति होती है ।
प्रश्न : सायंकाल श्राद्ध करने पर, पहले से प्रदूषित वायुमंडल अधिक दूषित होना; फलस्वरूप श्राद्ध के पुरोहित और यजमान दोनों को महापाप लगना
‘सायंकाल के वातावरण में बडी मात्रा में रज-तम भरा होता है । इस समय ब्रह्मांड में भी पृथ्वी और आप तत्त्वों की सहायता से सक्रिय रज-तमात्मक तरंगें अधिक होती हैं । ये तरंगें भारी होने के कारण इनका आकर्षण नीचे, अर्थात पाताल की ओर होता है । इन तरंगों से वातावरण में निर्मित अति दबाववाले क्षेत्र के कारण, धरती से संबंधित तिर्यक एवं विस्फुटित तरंगें सक्रिय होती हैं ।
यदि ऐसे रज-तमात्मक वातावरण में व्यक्ति अपने पितरों के लिए श्राद्धादि शांतिकर्म करता है, तब पितर अपने रज-तमात्मक वासनामय कोषसहित वातावरण में प्रवेश कर, पहले से ही प्रदूषित सायंकालीन वायुमंडल को अधिक दूषित करते हैं । इससे, श्राद्ध के पुरोहित और यजमान दोनों को महापाप लगता है और उन्हें नरकवास भोगना पडता है । अतः, यथासंभव सायंकाल रज-तमात्मक कर्म नहीं करने चाहिए ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग – १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’
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