घोन्सार

घोन्सार

 जय प्रकाश कुवंर
भारतवर्ष की बहुसंख्यक आबादी आज भी गांवों में ही रहती है। देश के हरेक राज्य में चाहे वो देश के किसी भी हिस्से, यानि पुरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण या फिर मध्य भाग के हों,वहाँ के लोगों के जीवन यापन के लिए स्थानीय स्तर पर कुछ सामाजिक व्यवस्थायें रही हैं। इन तरह तरह की व्यवस्थाओं के चलते गांवों में कुछ लोगों को सुविधाएं मिल जाती थीं, तो कुछ लोगों को जीविका मिल जाती थी। हालांकि देश की आजादी के बाद विकास के दौर में गाँवो से शहरों के तरफ लोगों का पलायन शुरू हुआ और ग्रामीण व्यवस्थाओं में बहुत कुछ बदलाव आ गया। पुरानी व्यवस्थाओं के चलते ग्रामीण क्षेत्र में लोगों में भाईचारा क़ायम था और हर जाति बिरादरी के लोग एक दूसरे पर आधारित थेऔर एक दूसरे से जुड़े हुए थे। इससे कुछ लोगों को सुविधा मिल जाती थी तो कुछ लोगों को काम और जीविका मिल जाती थी। हमारे बिहार प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्र में गोंड़ बिरादरी के लोग अनाज भुंजने के लिए घोन्सार चलाते थे, जो उनका एक व्यवसाय और उनकी जीविका का मुख्य साधन था। इसके चलते उन्हें रोजी रोटी मिल जाती थी और गांव के लोगों को अनाज भुंजने तथा सतू भुंजा, चिउरा आदि तैयार करने की सुविधा मिल जाती थी। तो आइये आज हम इस घोन्सार व्यवसाय की उपयोगिता और अहमियत को आप सबों के साथ साझा करते हैं।
देश के हरेक गांव में, आबादी के हिसाब से छोटा हो या फिर बड़ा हो, हर जाति के लोग रहते थे। गाँव में गोंड़ जाति के लोग ही घोन्सार व्यवसाय चलाते थे। जिस गाँव में उनकी संख्या ज्यादा होती थी, तो उसी के हिसाब से घोन्सार की संख्या भी ज्यादा होती थी। लेकिन उनमें आपसी ताल मेल से यह तय किया जाता था कि भांजा ( बारी ) के अनुसार किस दिन कौन घोन्सार चलायेगा। एक दिन एक साथ क‌ई घोन्सार भी चलते थे। इस काम में गोंड़ परिवार के औरत मर्द सबकी सहभागिता होती थी। लेकिन घोन्सार झोंकने का काम औरतें करती थीं, क्योंकि उनके घोन्सार में भुंजा भुंजने ज्यादातर गाँव की औरतें या फिर घर की लड़कियां हीं जाती थीं।
सबसे पहले कुछ ईंट और ज्यादा मिट्टी से एक ज्यादा लंबा और थोड़ा चौड़ा एक घोन्सार ( ओवन ) बनाया जाता था। ईंट का इस्तेमाल झोंकने वाले मुंह के तरफ होता था और पीछे की तरफ तथा बीच में उपर की तरफ धुंआ निकलने के लिए चौड़ा छेद बनाया जाता था। घोन्सार के दोनों तरफ के लम्बे दिवारों में चार चार या लम्बाई के अनुसार पांच पांच मिट्टी के हंडिया या पतुकी लगाए जाते थे,जिसे खपरी भी कहा जाता था और जिसमें अनाज भुंजने के लिए होता था। उनके पेंदी में घोन्सार झोंकने पर आग से गर्मी पहुँचती थी जिससे अनाज भुंजा जाता था। हंडिया में बालू थोड़ी मात्रा में डाला जाता था और उसे चलाने के लिए कंडे की लकड़ी का खोरनीं का इस्तेमाल किया जाता था। भुंजने के बाद भुंजे हुए अनाज को हंडिया (भांड ) से बाहर निकालने के लिए लोहे की कलछी रखी जाती थी और बालू मिश्रित अनाज को अलग करने के लिए एक लोहे की तार वाली चलनी ( छननी ) रखा जाता था। यह सारी व्यवस्था गोंड़ परिवार ही करता था। अब घोन्सार ( ओवन ) तैयार हो जाने के बाद जलावन की जरूरत होती थी। जिसके लिए अलग से व्यवस्था गोंड़ परिवारों को करनी पड़ती थी।
ईंधन के रूप में काम में लाने के लिए औरत मर्द सभी पहले गाँव के गाछ बागानों में पेड़ से गिरे सुखे पतों को खरहरा से बहार कर एक जगह बागान में ही इकट्ठा करते थे। इसे वो लोग गांज कहते थे। यह काम सालों भर चलता था परंतु ज्यादातर यह काम पतझड़ के मौसम में होता था। इस प्रकार गांज में इकट्ठा किया गया सुखा पता सालों भर काम में आता था। कोई भी बागान मालिक गोंड़ परिवार को पता इकट्ठा करने से रोकता नहीं था और इसके लिए उनसे कोई शुल्क नहीं लेता था। आवश्यकता के समय वो लोग बांस के बड़े बड़े छंइटा में भरकर उन सुखे पतों को अपने घोन्सार में लाते थे और घोन्सार में झोंकते थे।घोन्सार झोंकने के लिए घोन्सार में पहले आग जलाना पड़ता था। कुछ परिवार धान के पुआल और मड़ूआ के सुखे डंठल को भी घोन्सार झोंकने के लिए इस्तेमाल में लाते थे। यह सब उन लोगों को गाँव के लोगों के खेत खलिहान से नि: शुल्क मिल जाता था।
अब गाँव के लोग अपने परिवार की जरूरत के हिसाब से सतू, भूंजा अथवा चिउरा तैयार करने के लिए भांजा के हिसाब से जिस गोंड़ परिवार का घोन्सार उस दिन जलता रहता था, उसके मड़ई, पलानी अथवा खपरैल ओसारा में बने हुए घोन्सार में जाते थे और अपना भुंजा भुंजते थे। गोंड़न जो उस समय घोन्सार झोंक रही होती थी वह खपरी बता देती थी कि उसमें आपको भुंजना है। पारिश्रमिक के रूप में वह भुंजने के लिए लाए गए अनाज से कुछ हिस्सा निकाल लेती थी अथवा कुछ पैसे मांग लेती थी। ज्यादा औरतें तथा लड़कियां अपना भुंजा खुद भुंज लेती थी। जिस परिवार के लोग उसी से अनाज भुंजवाना चाहते थे अथवा चुड़ा कुटवाना जानते थे, उनसे वह पारिश्रमिक ले लेती थी। उन दिनों परिवार के अपने जरूरत के लिए तथा खेती के काम में लगे मजदूरों को खाना देने के लिए सतू, भुंजा और चिउरा की खुब जरूरत होती थी। अतः घोन्सार की निहायत जरूरत लगभग हर परिवार को पड़ती थी। इस प्रकार गाँव में भाईचारा भी कायम रहता था और सबका काम भी आसानी से निकल जाता था।
अब जैसे जैसे स्थिति बदलते गयी, उस तरह से गाँव में लोगों ने खेती बाड़ी करना कम कर दिया। गाँव से लोगों का जीविका के लिए पलायन शहर के तरफ हो गया। गाँव में गाछ बागान पेड़ पौधे कट कर खत्म हो गये। नयी पीढ़ी के लोगों ने सतू भुंजा के जगह फास्ट फुड का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। हर जाति बिरादरी के लोग चाहे औरत हो या मर्द हो, पढ़ लिख कर नौकरी पेशे के लिए शहर में निकल गए। गाँव लगभग सुना होता चला गया। इन सारे बदलावों का असर हमारे समाज के हमारी सामाजिक विरासत पर पड़ा।
अब घोन्सार झोंकने का व्यवसाय मृतप्राय है। बिरले ही गाँव देहात के किसी गाँव में घोन्सार देखने को मिल जाए। नयी पीढ़ी के लिए तो यह एक अजूबा है। नयी पीढ़ी की औरतें अगर कुछ भुंजना है तो गैस के चुल्हे पर कड़ाई में भुंज लेती हैं, या फिर इस काम के लिए अनेकों उपकरण बन गए हैं।
विकल्प के रूप में इन नये आधुनिक उपकरणों से सुख और आसानी से काम हर घर और समाज तथा परिवार चला ले रहा है, परंतु वह जातिगत और सामाजिक लगाव और भाईचारा जो हमने खो दिया है, वह हम कहाँ से लौटा लाएंगे। 
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