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द्रौपदी ( एक आईना )

द्रौपदी ( एक आईना )

समय होता बलवान जगत में ,
समय से बड़ा न कोई बलवान ।
समय के आगे सब हैं झुकते ,
वैज्ञानिक विद्वान या पहलवान ।।
सुख में जन जन होते हैं अपने ,
दुःख में होते हैं अपने पहचान ।
सुख में सारे आगे पीछे हैं होते ,
दुःख में सारे उल्टे पैर से पयान ।।
सारे अपने ही बैठे थे सभा में ,
जब द्रौपदी ही रही थी निर्वस्त्र ।
पाॅंचो पति भी उस सभा में बैठे ,
कृष्ण को उठाना पड़ा ये शस्त्र ।।
दुशासन बालि की भीड़ लगी है ,
द्रौपदी बन गई है एक आईना ।
बहनों बेटियों हथियार उठाओ ,
समझ लो तेरा कोई है भाई ना ।।
अपनी बचाव तुम्हें स्वयं करना ,
उस मार्ग को तुम प्रशस्त करो ।
जो भी बाधा तेरे मार्ग में आए ,
उसका सूर्य तुम ये अस्त करो ।।
सभ्यता संस्कृति न निज खोना ,
आधुनिक फैशन एक निंदा है ।
बढ़ती रहो तुम मार्ग पर अपने ,
अभी तेरे भाई कृष्ण जिंदा है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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